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द्वादशं पर्व
अन्योन्यं नृपनन्दनाः समुदिताश्चानन्दयन्तः परान् तीवा॑ देव सरिज्जलं प्रविपुलं जित्वामरी तुण्डिकाम् । प्राप्ताः सद्विजय विजय्यजयिनो जित्वा विपक्षात्क्षणात् धर्मस्यैव विजृम्भितेन भविनां किं किं न बोभूयते ॥३६७ धर्मो यस्य सखा सुखं खलु वरं प्रामोति स श्रेयसे धर्मो यस्य शुभः स भाति भुवने भाभित्रदुस्तामसः। धर्मो यस्य स रक्षकः क्षितितले संरक्ष्यते सोऽमरैः
धर्मो यस्य धनं समृद्धिजननं संमद्यते धार्मिकैः ॥३६८ इति श्रीपाण्डवपुराणे भारतनाम्नि भट्टारकश्रीशुभचन्द्रप्रणीते ब्रह्मश्रीपाल'साहाय्यसापेक्षे पाण्डवलाक्षागृहप्रवेशज्वलनप्रच्छन्ननिर्गमगङ्गासमुत्तरण
तुण्डीनामजलदेवतावशीकरणवर्णनं नाम द्वादशं पर्व ॥ १२ ॥ .
नदीका पानी तीरकर आपके पुण्यसे मैं यहां आया हूं" ऐसा भीमने उत्तर दिया ॥ ३६२-३६६ ॥ वे युधिष्ठिरादिक आपसमें एक दूसरेको आनंदित करते हुए सुखी हुए। गंगानदीका विपुल पानी तैरकर और तुण्डीदेवीको जीतकर उत्कृष्ट विजयको उन्होंने प्राप्त किया। शलओंको क्षणमें जीतकर वे विजयी हुए। धर्मके माहात्म्यसे संसारी जीवोंको क्या क्या इष्टकी प्राप्ति बार बार नहीं होती है ? अर्थात् संपूर्ण इष्टपदार्थोंकी प्राप्ति धर्मके प्रभावसे जीवोंको होती है ॥ ३६७ ॥ धर्म जिसका मित्र है उसे निश्चयसे उत्तम सुखकी प्राप्ति होती है । वह धर्म उसको मोक्षके लिये कारण होता है। जिसके पास शुभ धर्म है वह स्वकान्तिसे घनांधकारको नष्ट करके जगतमें शोभा पाता है। जिसके पास धर्म है वह सबकी रक्षा करता है तथा देवोंके द्वारा उसका रक्षण किया जाता है । जिसके सन्निध धर्म है उसको समृद्धिजनक धन प्राप्त होता है और वह धार्मिक लोगोंको अतिशय पूज्य होता है ॥ ३६८ ॥ ... ब्रह्म श्रीपालजीकी सहायताकी अपेक्षा जिसमें है ऐसे भट्टारक श्रीशुभचन्द्रविरचित
भारत नामक पाण्डवपुरागमें पाण्डवाका लाक्षागृहमें प्रवेश, अग्निसे जलजाना, उसमेंसे उनका निर्गमन, गंगाफो तैर जाना, तुण्डी नानक जलदेवताको वश करना इत्यादिकोंका वर्णन करनेवाला
यह बारहवां पर्व समात हुआ ॥ १२ ॥
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