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________________ द्वादशं पर्व २५९ नान्योपायैश्च कैवतैश्चालितापि न साचलत् । यथा कालज्वराकान्ता सत्तनुस्तनुतां गता॥ भो कैवर्ताश्च का वार्ता चलन्ती चालितापि सा । दुर्मेधेव सुशास्त्रे वा तरणी न चलत्यतः॥ कैवर्ता वर्तनावा पृष्टाः पाण्डवभूमिपैः। इति ते वचनं प्रोचुः श्रुत्वा पाण्डवसद्वचः ॥२५५ खामिवत्र जले नित्यवासिनी जलदेवता । तुण्डिकाख्या क्षितौ ख्याता समास्ते चामृताशिनी।। सा शुल्कं याचते युष्मान् नियोगानियमस्थिता। अतस्तस्यै प्रदायैतन्नौश्वाल्या निश्चलं स्थिता।। नाथास्माकं न दोषोऽयं न दोषो भवतामपि । नियोगाद्याचतेऽप्येषा नियोग ईदृशो भवेत् ॥ नियोगिनो नियोगेन शुल्कसंग्रहणोद्यताः । शुल्कं लात्वा प्रमुञ्चन्ति नरान्न्यायोञ संमतः॥ अतो दत्त्वा शुभं शुल्कं तुण्ड्यै तद्योग्यमुन्नतम् । चालितव्यं भवद्भिश्च न विलम्बो विधीयताम्।। नृपोमाणीनिशम्यैवं कैवर्तान्वार्तयोधतान् । अत्र देयं न किंचिद्वै, नैवेद्यं विद्यते ध्रुवम् ॥ सरित्तटे घटिष्यामः समाव्य पटवो वयम् । नैवेद्यं दीपनं रम्यमाज्यपायसमिश्रितम् ॥२६२ दत्त्वासै मानयिष्यामो नैवेद्यं विदितात्मकम् । पवित्रं सज्जनैर्मान्यं गत्वा च सरितस्तटे ॥ नहीं बढी, स्थिरही रही ॥ २५२ ॥ जैसे कालज्वरसे क्षीण हुआ शरीर चलनेमें असमर्थ होता है। वैसे धीवरोंद्वारा अन्य उपायोंसे चलानेका प्रयत्न करनेपरभी वह नहीं चल सकी। ॥ २५३ ॥ " हे धीवर कहो तो क्या बात है। अबतक तो यह स्वयंही चलती थी परंतु अब क्या हुआ, जो यह चलानेपरभी नहीं चलती है। जैसी दुष्ट बुद्धि हितकर- शास्त्रमें चलानेपरभी नहीं चलती है, वैसी यह नौका चलानेपरभी नहीं चलती है । इसमें क्या हेतु है ? चलानेकी पुनरावृत्ति की गई तोभी नहीं चलती " ऐसा पाण्डवोंने धीवरोंको पूछा तब वे उनका शुभ वचन सुनकर इस प्रकार बोले-" हे स्वामिन् इस गंगाके जलमें हमेशा रहनेवाली तुण्डिका नामकी पृथ्वीपर प्रसिद्ध अमृत भक्षण करनेवाली देवता रहती है। उसका यहां स्वामित्व होनेसे वह अपने कायदेमें दृढ रहकर आपको कर-भेट मांगती है। इसलिये वह इसे देनेपर यह निश्चल नौका चलेगी। हे प्रभो, यह न हमारा दोष है न आपका। वह देवता स्वकीय हकसे याचना करती है। इसका नियोग-हक ऐसा है। जैसे राजपुरुष अपने अधिकारसे करग्रहण करनेमें तत्पर होते हैं, कर लेकर वे आदमीको छोड देते हैं, वैसे यहांभी यह न्याय लागू है। उसे मान्य करना चाहिये । " इसलिये इस देवताके योग्य शुभ उन्नत बढिया शुल्क-कर देकर इसे आपको चलाना चाहिये । इसमें विलम्ब नहीं करना चाहिये " ॥ २५४-२६०॥ ऐसी वार्ता कहनेवाले, नाव चलानेके लिये उद्यत हुए। उन धीवरोंका ऐसा भाषण सुनकर राजा युधिष्ठिर बोले, कि “ यहां तो देवीको देनेलायक नैवेद्य हमारे पास हैही नहीं। हम जब नदीके किनारेपर जायेंगे तो हम इधर उधर जाकर नैवेद्य के लिये प्रयत्न करेंगे। पायस मिलाया हुआ, घीसहित, उज्ज्वल, और सुंदर नैवेद्य हम तयार करेंगे और नदीके तटपर जाकर सज्जनोंसे मान्य, पवित्र और प्रसिद्ध स्वरूपका नैवेद्य देवताको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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