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________________ २५८ पाण्डवपुराणम् समीनकेतना हंसगामिनी पक्षिसद्वचाः। सीमन्तिनीव या भाति भासुरा देवनिम्नगा॥ तामगाषां समावीक्ष्य संततुं विषमां समाम् । अक्षमाः क्षणतः खिन्ना विश्रब्धास्तत्र पाण्डवाः।। कैवर्तान्वर्तने शक्तांस्तस्या उत्तरणक्षमान् । समाहूय समाचख्युरिति तूर्ण सुपाण्डवाः ॥२४५ धीवरा धृतिमापन्ना द्रुतं च तरणीं तराम् । समानयत सुव्यक्तां समुत्तरणहेतवे ॥२४६ इत्युक्ते तत्क्षणात्तैश्च समानीता विछिद्रिका । तरणी तरणोपायं सूचयन्ती तरन्त्यपि ॥२४७ तदा ते तां समारुह्य प्रविष्टा देवनिम्नगाम् । कुन्त्या सह सुकुन्तात्तहस्ता व्यस्तविषादकाः ।। प्रविवेश तरीमध्येसलिलं पाण्डवान्विता । चलत्कल्लोलमालाभिर्वहन्ती सुवहा वरा ॥२४९ मध्येगङ्गं गता साप्यग्रे गन्तुं न क्षमाऽभवत् । अस्थिराऽपि स्थिरातत्र स्थिता स्थगितसद्गतिः।। चालितानेकधा तैश्च न चचाल चलात्मिका। पदं दातुमशक्ता सा कीलितेव स्वकर्मणा ।। अरित्रैर्वाद्यमानापि विविधैर्निश्चलं स्थिता । भय॑माना कुभार्येव पदं दत्ते न सा तरी॥२५२ भरी रहती है। स्त्री मीनकेतनसे-मदनसे कामपीडासे युक्त होती है, और नदी मीन-मत्स्य रूप ध्वजसे शोभती है, अर्थात् नदीमें जब बडे बडे मत्स्य ऊपर उछलकर आते हैं तब वे ध्वजके समान दीखते हैं। स्त्रीकी गति हंसीकी गतिके समान होती है और नदी हंसपक्षियोंके गमनसे युक्त थी। पक्षियोंके शब्दही नदीके शब्द हैं। स्त्री कोकिलाके समान मधुर वचन बोलती है। यह देवनदी स्त्रीके समान कान्तियुक्त दीखती है" ॥ २४०-२४३ ॥ वह सुरनदी अगाध और समान थी परंतु उसे तैरकर जाना शक्य नहीं है ऐसा देखकर असमर्थ पाण्डव क्षणतक खिन्न होकर वे नदीके पास विश्रान्त होगये-ठहर गये ॥ २४४ ॥ नांव चलानेमें शक्तिशाली और उस नदीसे तैरकर दूसरे किनारेपर जानेमें समर्थ ऐसे धीवरोंको शीघ्रही बुलाकर उन पाण्डवोंने कहा "धैर्यके धारक हे धीवर, तुम पार पहुंचानेके लिये समर्थ ऐसी नौका जल्दी लाओ । वह सुव्यक्त मजबूत होनी चाहिये । ” ऐसे बोलनेपर तत्काल वे छिद्ररहित नौका लाये। वह तैरती हुई तैरनेके उपायकोभी सूचित करती थी। तब वे पाण्डव कुन्तीके साथ उसपर आरोहण कर गंगानदीमें प्रवेश करने लगे। पाण्डवोंके हाथमें भाले थे और उनके मनसे अब विषाद निकल गया था ॥ २४५-२४८ ॥ चंचल तरंगोंके साथ आगे चलनेवाली वह उत्तम नौका अच्छी तरहसे चल रही थी। वह गंगानदीके बीचमें गई, परंतु आगे न जा सकी। यद्यपि वह नौका अस्थिरचञ्चल थी तथापि उसकी गति रुक गयी, वह बीचहीमें स्थिर होगई ॥ २४९-२५० ।। वह चंचल नौका अनेक उपायोंसे चलाई जानेपरभी न चल सकी, मानो अपने कर्मसे कीलित कर दी हो ऐसी वह नौका एक पैरभी आगे न बढ सकी ॥ २५१ ॥ अनेक अरित्रोंसे अनेक वल्होंसे आगे चलाने परभी वह निश्चलही रही। अपशब्दोंद्वारा निर्भर्त्सना करनेपरभा जसी दुराग्रही पत्नी एक पांवभी आगे नहीं रखती और अपना आग्रह नहीं छोडती है वैसे वह नौकाभी आगे बिलकुल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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