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द्वादशं पर्व
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अतः स्वास्थ्येन संस्थेयं स्थिरैश्च स्थिरमानसैः। भवद्भिरिति संप्राप्ते काले नेष्यति तत्क्षयम् ॥ विदुषा वारिताः सर्वे यादवा विबुधा वराः। श्रेयांस इति संतस्थुर्जानन्तो वैरिविक्रियाम् ॥ . अथ ते पाण्डवाश्चण्डा दन्तावलकरोत्कराः। पराक्रमसमाक्रान्तदिक्चक्राश्चक्रिविक्रमाः॥२३५ ऐन्द्रीं दिशं समालम्ब्य परावृत्तसुवेषकाः। प्रच्छन्ना निर्गता भस्मच्छन्नपावकवद्वराः ॥२३६ कुन्तीगतिविशेषेण मन्दं मन्दं व्रजन्ति ते। स्वस्थाः संशुद्धिसंपन्नाः पाण्डवास्तत्त्ववेदिनः॥
श्रान्तायामथ तस्यां ते श्रान्ताः स्थितिकराः स्थिराः।
स्थितायामुपविष्टाश्वोपविष्टायां पट्टद्यमाः॥ २३८ शनैः शनैर्वजन्तस्ते संपापुः सुरनिम्नगाम् । अगाध जलकल्लोलमालिनी जलहारिणीम् ।। यत्कूले कल्पशालाभाः शालाः शाखासमुन्नताः। विशालाः फलिनः फुल्लाः सुमनःशोभिता बभुः सावर्तनाभिका लोलजलकल्लोलबाहुका । सत्स्थूलोपलवक्षोजा कूलद्वयपदावहा ॥२४१ प्रत्यन्तपर्वतस्थूलनितम्बा निम्नगामिनी। महाह्रदमहावक्षाः सरोजाक्षी सदाजडा ॥२४२
वैरियोंकी विक्रिया जानकर अर्थात् इस समय शत्रुओंका बल और उन्मत्तता जानकर स्वस्थ रहना ही श्रेयस्कर है ऐसा यादवोंने निश्चय किया ॥ २३१-२३४ ॥
[द्विजके वेषसे पाण्डवोंका प्रवास ] हाथी की शुण्डाके समान उत्तम हाथवाले, पराक्रमसे दशदिशाओंको व्याप्त करनेवाले, चक्रवर्तीके समान पराक्रमी, श्रेष्ठ, प्रचण्ड पाण्डव पूर्व दिशाका आश्रय लेकर चलने लगे। उन्होंने अपना सुवेश बदल दिया, भस्मसे ढंके हुए अग्निके समान गुप्त होकर वे प्रयाण करने लगे । कुन्तीकी गतिके अनुसार वे धीरे धीरे चलने लगे। वे पाण्डव स्वस्थ थे । उनके मनमें प्रस्तुत प्रसंगसे क्षोभ उत्पन्न नहीं हुआ था। वे शुद्ध विचारवाले और तत्त्वोंके जानकार थे ।। २३५-२३७ ॥ जब कुन्तीमाता थकती थी, तब वे आगे चलना बंद कर देते थे और उसके साथ विश्रान्ति लेते थे। जब वह खडी हो जाती थी तब वे स्थिर होकर खडे हो जाते थे। जब वह बैठती थी तब उत्साहयुक्त उद्यमवाले वे पाण्डवभी बैठते थे। इस तरह धीरे धीरे प्रयाण करनेवाले वे गंगानदीके पास चले गये ॥ २३८-२३९ ।। वह गंगानदी अगाध थी, हमेशा उसमें पानीकी खूब लहरें उठती थीं तथा जलसे सुंदर दीखती थी। इसके किनारेपर कल्पवृक्षोंके समान, शाखाओंसे ऊंचे विपुल वृक्ष थे। वे विशाल, फलोंसे लदे हुए, और प्रफुल्ल पुष्पोंसे सुशोभित थे। वह गंगानदी स्त्रीके समान भँवररूपी नाभिको धारण करती थी चंचल जलतरणरूपी बाहुओंसे युक्त थी। उत्तम और स्थूल पत्थर उसके स्तन समान दीखते थे। और दो किनारे उसके दो पैर थे। समीपके पर्वत मानो उसके स्थूल नितम्ब थे। महाह्रदरूपी वक्षःस्थल उसने धारण किया था और उसमें जो कमल खिले थे वेही मानो उसके नेत्र थे । स्त्री जडमूर्ख होती है और यह नदी सदाजडा-सदाजला [ड ओर ल में अभेद माननेसे ] हमेशा जलसे
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