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द्वादर्श पवे
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मिलच्छोको गलन्मोदो गाङ्गेयो गुणगौरवः। किंवदन्तीमिमां श्रुत्वा मुमूर्छ मतिमोहतः॥ मूर्छया मोहितः सोऽपि मृत्युसख्येव प्राप्तया। हरन्त्या चेतनां चिन्त्यां सातं छेत्तुमवाप्तया। शनैः शनैर्गता मूर्छा तदेहाच्छीतवस्तुतः । अलक्ष्मीरिव चोत्तस्थे गाङ्गेयः शोकसंगतः॥ स सिञ्चन्शोकसंतप्तो धरामश्रुसुधारया । रुरोद हृदये खिनः प्रखिमः शोकवारिभिः ॥१९२ अहो सुताः कथं दग्धा विदग्धाः सर्ववस्तुषु। युष्मदृते कथं सातमस्माकं शङ्कितात्मनाम् ॥ भवादृशां कथं युक्ता पश्चता पावकाद्भवेत् । मृत्युश्चेत्संगरे युक्तं वैरिवृन्दमदापहे ॥१९४.. अथवा धर्मयोगेन दीक्षया शिक्षयाथ वः । संन्यासेनात्मसाध्येन मृत्युर्युक्तो न चान्यथा ॥ वैरिभिः कौरवैश्वाहो यूयं दग्धा भविष्यथ । पापिनां पापरूपाहो प्रज्ञा विज्ञानवर्जिता ॥१९६ गाङ्गेयवत्तका द्रोणः श्रुत्वा मूर्छामवाप च । उन्मञ्छितो विलापेन मुखरं दिक्चयं व्यधात ॥ अहो कौरवपापानामनुष्ठानं कुचेष्टिनाम् । शिष्टातिगमनिष्टं च नन्विदं निश्चितं बुधैः ॥१९८ तदा कौरवभूपालान्त्रमाण भयवर्जितः । द्रोण इत्थं न युक्तं भोः कुलक्रमविनाशनम् ॥१९९
महागुणशाली गाङ्गेय-भीष्माचार्य पाण्डवोंकी अग्निमें दग्ध होनेकी वार्ता सुनकर मतिमें मोह होनेसे मूर्छित हो गये । मानो मृत्युकी सखी और विचार करने योग्य चेतनाको हरनेवाली,सुखको तोडनेके लिये आई हुई मूर्छासे वे भीष्माचार्य मोहित होगये । शीत वस्तुओंके चन्दनादि मिश्रित जलका उपचार करनेसे उनके देहसे मानो अलक्ष्मीके समान-दारियके समान शनैः शनैः मूर्छानष्ट हो गई। और शोकसे विकल भीष्माचार्य ऊठकर बैठ गये ॥ १८९-१९१ ॥ शोक सन्तप्त गांगेयने अश्रुकी धारासे भूमिको सिञ्चित करते हुए रुदन किया। वे हृदयमें खिन्न हुए और शोकजलसे भीग गये । हे पुत्रों, तुम सर्व वस्तुओंमें चतुर थे, यानी तुम्हें सर्व पदार्थोंका ज्ञान था । तुम अग्निमें जल गये ? तुम्हारे बिना हम हमेशा शङ्कितवृत्ति हो जायेंगे, जिससे हमको अब सुखलाभ नहीं होगा। तुम जैसे महापुरुषोंको अग्निसे मरण कैसा संभवनीय है ? वैरियोंका गर्व नष्ट करनेवाले तुम लोगोंका युद्ध में यदि मरण होता तो युक्त माना जाता। अथवा धर्भधारण करनेसे, दीक्षासे, आतापनादियोगधारणाकी शिक्षासे, अथवा आत्मसाधनायुक्त संन्याससे -- सल्लेखनासे मरण प्राप्त होना योग्य है अन्यथा इस प्रकारका मरण तुम सरीखोंको योग्य नहीं है। हमारी तो ऐसी धारणा है कि शत्रुभूत कौरवोंसे तुम जलाये गये होंगे। अहो पापी लोगोंकी पापरूप बुद्धि सच्चे ज्ञानसे रहित होती है ॥ १९२-१९६ ॥ गांगेयके समान द्रोणाचार्यने भी यह वार्ता सुनी और वेभी मूछित हुए। जब उनकी मूर्छा हट गयी तब उनके विलापसे सर्व दिशायें भर गयीं। विद्वानोंने निश्चित किया कि कुत्सित आचरणवाले पापी कौरवोंका यह कार्य शिष्टोंके विरुद्ध और अनिष्ट है। अर्थात् कौरवोंनेही पाण्डवोंको जलाया यह निश्चित है। निर्भय द्रोणाचार्यने कौरव राजाओंको उस समय कहा, है कौरव ! इस प्रकारसे कुलपरंपराका विनाश करना योग्य नहीं है।
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