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________________ २५२ पाण्डवपुराणम् किमद्य नगरे जातं सुजात्यजनवर्जनम् । अहो दुःखं खरं क्षिप्रं क्षिप्तं केनात्र पापिना ॥१७८ पाण्डवाः खलु पाण्डित्यमटन्तः पटुमानसाः। प्रचण्डाश्चण्डकोदण्डा घटिताः शुभकर्मणा ॥ पराक्रमसमाक्रान्तनिःशेषभुवनेश्वराः। अनुल्लझ्याः सुलझ्यास्ते कथं जाताः स्वकर्मभिः॥ विदग्धास्ते कथं दग्धा धिग्वैदग्ध्यं तवाधुना। विधे विधुरतां नीता ईदृशा हि नरास्त्वया॥ संदिग्धं मानसं मेऽद्य जातमस्ति सुचिन्तनात् । ईदृशाः केन दह्यन्ते विदग्धाः कर्मणेति च॥ किं ते दग्धा न वा दग्धा विदग्धा मम मानसम् । संदिग्धमीदृशानां हीतीदृशं मरणं कथम्।। पुण्यवन्तः पुमांसस्तु प्रायशो नाल्पजीविनः । तथापि नेदृशो मृत्युमेहतां जायते लघु ॥१८४ अहो अद्य पुरं जातं निःशेष चोद्वसं लघु । उद्वसे च पुरे स्थातुं वयं शक्ताः कथं ननु । अद्यैव मेघवद्ध्वस्तो मेघेश्वरमहीपतिः। अद्यैव शान्तिचक्रीशः शान्ति यातो महीतले ॥१८६ अद्यैव शान्तनुः श्रीमान्गतोऽस्माकं सुदुःखतः। महाभ्यासस्तु स व्यासः किमद्यासौ मृतिं गतः।। अद्यैवाहो मृति यातः प्रकटं पाण्डुपण्डितः। इति ते रुरुदुः पौराः पाण्डवेषु गतेषु च ॥१८८ पापीने शीघ्र तीक्ष्ण दुःख हमारे ऊपर फेंक दिया है ? ॥ १७६-१७८ ॥ निश्चयसे चतुर मनवाले, प्रचण्ड धनुर्धारी, पांडित्यको धारण करनेवाले ये प्रचण्ड पाण्डव शुभकर्मसे रचे गये हैं अर्थात् पूर्वजन्मके पुण्यसे इनकी उत्पत्ति हुई है। इन्होंने अपने पराक्रमसे संपूर्ण राजलोगोंको व्याप्त कर दिया है अर्थात् अनेक राजा इनके पराक्रमसे वश हुए हैं, अतः ये अनुल्लंघ्य हैं। इनका कोई पराजय या नाश नहीं कर सकता है । तब ये अपने कर्मोंसे कैसे सुलंध्य हो गये ? कुछ समझमें नहीं आता है। 'हे विधे तूने अतिशय चतुर पाण्डवोंको कैसे जला डाला ? हे कर्म तेरी चतुरताको धिक्कार है। ऐसे महापुरुषभी तूने संकटमें डाल दिये हैं। ठीक विचार करनेसे हमारा मन आज संदिग्ध हुआ है, ऐसे विद्वान् पुरुष कौनसे कर्मके द्वारा दग्ध किय जाते हैं ? कुछ समझमें नहीं आता है। वे चतुर पुरुष जल गये अथवा नहीं इस बारेमें हमारा मन संदिग्ध हुआ है। ऐसे महापुरुषोंका इस प्रकारका शोचनीय मरण कैसे हुआ ? " " पुण्यवान पुरुष प्रायः अल्पजीवी नहीं होते हैं। तथापि महापुरुषोंको इसप्रकारकी मृत्यु इतनी जल्दी नहीं होती है । अहो आजही यह संपूर्ण हस्तिनापुर नगर जल्दीही ऊजड होगया है । इस ऊजड नगरमें हम अब निवास करनेमें असमर्थ हैं।” “ आजही मेघेश्वर राजा-जयकुमारनृप मेधके समान नष्ट होगया है। आजही शान्तिचक्रवर्ती इस भूतलपर शान्त हुआ है ऐसा हम समझते हैं । आजही श्रीमान् शान्तनु महाराज हमारे दुःखसे-अशुभ कर्मोदयसे नष्ट हुए हैं। तत्त्वज्ञानका महाभ्यास जिनको है, ऐसे व्यास राजा आजही क्या मरणको प्राप्त हुए है ? क्या आजही प्रगट रीतीसे पाण्डुपंडित-पाण्डुराजा मर गये हैं ? इस प्रकारसे स्मरण कर पाण्डवोंके चले जानेपर नगरवासी लोक रुदन करने लगे ॥ १७९-१८८ ॥" जिनको शोक प्राप्त हुआ है और जिनका आनंद नष्ट हुआ ह ऐसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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