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________________ द्वादशं पर्व २५१ रुदन्तीं तां तदा कुन्तीं कृन्तन्ती कुन्तलान्निजान् । निषिद्धथ निर्भयो भीमः समुत्तस्थे निजासनात् ॥१६६ इतस्ततो भ्रमन्भीमोऽभीतात्माऽभ्रष्टभानुकः। लेभे धरागतां पुण्यात्सुरङ्गां देशनामिव ॥१६७ ततस्तन्मार्गतस्तूर्ण निर्जग्मुर्गमनोत्सुकाः। सुस्नेहाः स्नेहतः कुन्त्या चिन्तयन्त्या जिनं च ते।। क्षणात्ते क्षिप्तचेतस्का लवयित्वा गृहं गताः । वनं भव्या भवं भुक्त्वा यथा यान्ति सुनिवृतिम् अहो पश्यत पुण्याव्याः शुद्धं सुश्रेयसः फलम् । अज्ञातात्र सुरङ्गापि दर्शिता येन तत्क्षणम् ॥ वृषाद्वारीयते वह्निर्जलधिः स्थलति ध्रुवम् । चित्रं मित्रायते शत्रुनागो महालतायते ॥१७१ ततस्ते पाण्डवास्तूर्ण गत्वा प्रेतवनान्तरे। अशर्मकलितास्तस्थुः कुन्तीयुक्ताः सुयुक्तितः॥ तत्र भीम उपायज्ञो मृतकानां गतात्मनाम् । षटुं स्वयं गृहीत्वाशु गत्वा लाक्षागृहान्तिकम् ।। अक्षिपत् क्षणतः क्षुणो न लक्ष्यो नरनायकैः। तत्र तूण विनिवृत्तस्ततः सल्लक्षणान्वितः॥ अलक्ष्यास्ते विलक्ष्यास्ते क्षितौ क्षितिपनन्दनाः। एकत्रीभूय निर्जग्मुरहार्या इव जङ्गमाः ॥ तत्र प्रातस्तदा जातं द्रष्टुं तान्पाण्डुनन्दनान् । धार्तराष्ट्राः समाजग्मुमुखतो दुःखभाषणाः।। सर्वस्मिन्नगरे तद्धि विज्ञाय नागरोत्कराः। हाकारमुखरा मुख्या दुःखं भेजुरतित्वरा ॥१७७ और तेजस्वी बना रहा। जैसे पुण्यसे हितकारक उपदेश मिलता है वैसे उस पुण्यसे भूमीमें गढी गई सुरङ्गा मिल गई । तदनन्तर अन्योन्यके ऊपर अतिशय स्नेह रखनेवाले वे पाण्डव जिनेश्वरका स्मरण करनेवाली कुन्तीके साथ उस सुरंगाके मार्गसे गमनोत्सुक होकर शीघ्र निकल गये। जैसे भव्य जीव भवको उलँघकर मुक्तिको जाते हैं वैसे जिनका चित्त भयविकारसे रहित है ऐसे पाण्डव घरको उलंघकर वनमें गये। अहो पुण्यपरिपूर्ण जन, आप निमल धर्मका फल देखो। इस धर्मने-पुण्यने पाण्डवोंको जो बिलकुल अज्ञात थी वह सुरङ्गाभी तत्काल दिखाई ॥ १६६-१७० ॥ इस धर्मसे अग्नि जल होता है। समुद्र स्थलके समान होता है। शल मित्र होता है, और सर्प महालताके समान होता है, यह बडी अचम्भेकी बात है ॥ १७१ ॥ तदनन्तर कुन्तीके साथ वे दुःखी पाण्डव तत्काल श्मशानमें जाकर वहां सुयुक्तिसे ठहरे। वहां उपाय जाननेवाला भीम छह प्राणरहित मनुष्यशव स्वयं ग्रहणकर शीघ्र लाक्षागृहके समीप गया और अन्य लोगोंसे अज्ञात होकर उस चतुरने वे शव वहां फेक दिये तथा वह सुलक्षणी भीम वहांसे शीघ्र लौटकर फिर श्मशानमें आया ॥ १७२-१७४ ॥ लोगोंके द्वारा नहीं जाने गये, तथा खिन्न हुए राजपुत्र एकत्र हुए मानो जंगम पर्वत है ऐसे भूमीपरसे आगे जाने लगे ॥ १७५ ॥ प्रातःकाल होनेपर उन पाण्डुपुत्रोंको देखनेके लिये मुखसे दुःख दिखलानेवाला भाषण करनेवाले कौरव वहां आगये । संपूर्ण नगरमें वह दुःखप्रसंग मालूम हुआ। नगरवासियोंके मुखियोंका समूह मुखसे हाहाकार करता हुआ अतिशय त्वरासे वहां आया। 'आज नगरमें सत्पुरुषोंका त्याग हुआ। अहो आज किसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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