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पाण्डव पुराणम्
अनवेक्ष्य सुधमात्मा धर्मपुत्रः सुधर्मधीः । हेतुं निर्गमने गम्यं सस्मार श्रीजिनेशिनः ॥ १५५ अपराजितमन्त्रेण मन्त्रयित्वा स्वमानसम् । युधिष्ठिरः स्थिरं तस्थौ स्थाम्ना स्थगितमानसः ।। अहो कर्मक्रियां पश्यन्नजय्यां संज्जनैरपि । फलन्तीं फलमुत्कृष्टं तत्कर्म कुरुषे कथम् ॥ १५७ कर्मणा कलिताः सन्तः सन्तः सीदन्ति संसृतौ । कमणां पाकतः पुत्राः सागराः किं न दुःखिताः। अर्ककीर्तिः क्षिता ख्यातो बन्धनं जयतो गतः । कर्मणान्ये न किं प्राप्ता बन्धनं भुवि भूमिपाः।। ज्वालनं ज्वलनं प्राप्ताः कर्मणा वयमप्यहो । अतः कर्मच्छिदं देवं स्मरामो विस्मयातिगाः ॥ इति संचिन्तयंश्चित्ते स्थिरो ज्येष्ठो विशिष्टधीः । तावता सहसा बुद्धा कुन्ती संप्राप्तचेतना || ज्वलत्सा सदनं वीक्ष्य रुरोद विशदाशया । अग्रतो दुर्गमं दुःखं वीक्षमाणा व्यवस्थितम् ॥ अहो मया कृतं दुष्टं कर्म किं कलुषात्मकम् । यत्प्रभावादिदं लब्धं फलं प्रविपुलं परम् ॥ अहो पापस्य पाकेन पापच्यन्ते परा नराः । पुनस्तदेव कुर्वन्ति धिगज्ञानं जनोद्भवम् ॥ १६४ किं कुर्मः क प्रयामः क तिष्ठामः समुपस्थिते । वीतहोत्रे विशुद्धेऽस्मिन्गेहे प्रज्वलति स्फुटम् ॥
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निकलने के लिये हेतुभूत उपाय नहीं दिखनेसे श्रीजिनेश्वरका स्मरण करने लगे । अपराजित मंत्र - पंचणमोकार मंत्र से युधिष्ठिर ने अपने मनको अभिमंत्रित किया, धैर्यसे स्थिर मन करके वह स्थिर बैठ गया । " हे आत्मन्, उत्कृष्ट फल देनेवाले सज्जनोंसे भी नहीं जीते जानेवाले कर्मका कार्य देखते हुए भी तू ऐसा कर्म क्यों कर रहा है ? कर्मसे वेष्टित होकर सज्जन इस संसार में कष्टका अनुभव कर रहे हैं । कमक उदयसे सगरचक्रवर्ती के पुत्र क्या दुःखित नहीं हुए हैं ? इस भूतलपर भरतचक्रवर्तीका पुत्र अर्ककीर्ति प्रसिद्ध हुआ है; परंतु जयकुमारसे वह बंधनको प्राप्त हुआ । क्या इस भूतलपर कर्मसे अन्यभी अनेक राजा बंधनको प्राप्त नहीं हुए हैं ।। १५५-१५९ ।। इस कर्मोंदयसे आज हमको भी अग्नि जलानेको उद्यत हुआ है। इसमें आश्चर्य कुछ भी नहीं है । इस समय हम कर्मोंको छेदनेवाले देवका - जिनेश्वरका स्मरण करते हैं " । विशिष्ट बुद्धिवाले ज्येष्ठपुत्र ऐसा मनमें स्थिर विचार कर रहे थे, इतनेमें जिसकी निद्रा टूट गयी है ऐसी कुन्ती अकस्मात् जागृत हुई। जलते हुए घरको देखकर निर्मल विचारवाली वह कुन्ती आगे दुर्गम दुःख उपस्थित हुआ ऐसा समझकर रोने लगी । अहो मैंने ऐसा कौनसा कलुष कर्म किया है, जिसके प्रभाव यह प्रत्यक्ष उत्कृष्ट त्रिपुल फल मुझे मिल रहा है । अरेरे! पाप कंमके उदयसे ये सब लोग बार बार दुःखफल भोग रहे हैं परंतु पुनः वही कर्म ये लोग करते हैं । ' लोगों के इस अज्ञानको धिक्कार हो।' इस समय हम क्या करें ? कहां जावें ? कहां बैठे ? अतिशय सुन्दर इस घरको अग्नि स्पष्ट तसे जला रही है। ऐसा विचार कर रोनेवाली और अपने केशोंको तोडती हुई कुन्तीका निर्भय भीमने निषेध किया और वह अपने आसन से ऊठकर खडा हुआ ।। १६०-१६५ ॥
[ लाक्षागृहनिर्गमन ] वह भीम इतस्ततः घरमें घूमने लगा । इस संकट से भी वह निर्भय था
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