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द्वादशं पर्व
२४९ तद्धामसंनिधिं धृष्टो धाष्टर्थेन विदधे ध्रवम् । इत्वाथ ज्वालनं क्षिप्रं चतुःपार्श्वे स वाडवः।। दुर्जनाः किं न कुर्वन्ति स्वीकृतं दुष्टमानसाः। किं न खादन्ति व काकाः किं न जल्पन्ति वैरिणः॥ स दुष्टोऽनिष्टसंनिष्ठः क्लिष्टचेता हुताशनम् । दत्त्वा समाटितः क्वापि शुभं चेतः क्व पापिनाम्।। जज्वाल ज्वलनो ज्वाल्यं वेश्म संदीप्य ज्वालया। गगनं गतया तूर्ण दाहकानां तु का कृपा। लाक्षागृहं दहज्ज्वालालीढं च विपुलात्मकम् । दिदीपे दाहको दीपो दीप्यते किं न दाहकः।। ततः सुप्ता नराधीशास्तदा पञ्चापि पाण्डवाः। जजागरुन सुश्रान्ता निद्रा हि मरणायते ॥ लक्ष्यीकृताग्निना लाक्षा विपक्षेव क्षणाधेतः। ज्वलन्ती ज्वालयामास वस्तु वेश्मगतं वरम् ॥ कथं कथमपि प्रायः प्रीताः पञ्चापि पाण्डवाः। जजागरुमहाज्वालालीढसद्वेश्मभित्तयः॥ उनिद्रा ददृशुर्जालां ज्वालयन्ती निकेतनम् । परितो जतुसंदीप्तां चलां कल्पान्तजामिव ।। इतस्ततः प्रपश्यन्तो निर्गमोपायमात्मना। नाशक्नुवन्पदं दातुं वापि ज्वालाकरालिते॥१५३ तडतडत्प्रकुर्वन्तीं स्फोटयन्ती सुभित्तिकाम् । ज्वालां ककुप्सु संप्राप्तां ददृशुः पाण्डवास्तदा।।
दिया ।। १४४ ॥ दुष्ट मनवाले दुर्जन स्वीकारा हुआ कौनसा अकार्य नहीं करते हैं ? कौवे कौनसा पदार्थ नहीं खाते हैं ? और शत्रु क्या क्या नहीं बोलते हैं अर्थात् शत्रु सज्जनोंके विषयमें क्या क्या आक्षेप नहीं लेत हैं ? ॥ १४५॥ अनिष्ट कार्यों में जिसकी रुचि है, जिसका मन अशुभविचारोंसे भरा हुआ है ऐसा वह दुष्ट ब्राह्मण अग्नि लगाकर कहीं भाग गया, लोगोंको उसका जाना मालूम नहीं हुआ। पापियोंका अन्तःकरण कहीं शुभ होता है ? जलदी जलने योग्य उस लाक्षागृहको प्रकाशित कर आकाशमें जानेवाली ज्वालाओंसे अग्नि अतिशय भडक उठा। योग्य ही है कि, जलानेवालोंको कृपा कहाँसे ? वह विस्तृत लाक्षागृह ज्वालाओंसे घिरा हुआ था । उसको जलानेवाला अग्नि खूब दीप्त हुआ। जो दाहक होता है वह प्रदीप्त क्यों न होगा ? ॥ १४६-१४८॥ मनुष्योंके अधिपति, पांचोंही पाण्डव उस समय लाक्षागृहमें सोये हुए थे। थके हुए होनसे वे जागृत नहीं हुए। योग्य ही है, कि निद्रा मरणके समान होती है। अग्निने मानो शत्रु समझकर क्षणार्द्ध में लाखको घेर लिया। वह उसे जलाने लगा। घरमें जो इतर अच्छी वस्तुयें थीं वह भी जलने लगीं ॥१४९-१५०॥ प्रीतियुक्त पांचो पाण्डव जागृत हुए। उससमय उस लाक्षागृहकी सर्व भित्तियां ज्वालाओंसे घिर गयी थीं। जब वे निद्रारहित होकर चारों तरफ देखने लगे तो उनको चारों तरफसे भडकी हुई चंचल कल्पान्तकालकी ज्वालाके समान घरको जलानेवाली ज्वाला दीख पडी । वे इधर उधर निकल जानेका उपाय देख रहे थे परंतु ज्वालाओंसे सब घर व्याप्त हुआ था, कहीं भी उन्हें पैर देनेको जगह न थी ॥ १५१-१५३ ॥ उस समय तड तड करती हुई और भित्तिको फोडनेवाली, सब दिशाओंमें फैली हुई ज्वाला पाण्डवोंने देखी ॥ १५४ ॥
[ युधिष्ठिरकी आत्मचिन्ता ] सुधर्मात्मा और धर्मबुद्धिको धारण करनेवाले युधिष्ठिर बाहर पां. ३२
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