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द्वादशं पर्व
रमार्थ मारणं पुंसां सा रमा बिरमा मता । परं प्राणिवघात्पापं पापाद्दुर्गतिरुत्तरा ॥१२२ वसुना तेन किं साध्यमसुमन्नाशकारिणा । रमयालमतो नाथ किंचिदन्यत्प्रकाशय ॥ १२३ श्रुत्वा दुर्योधनः क्रुद्धः प्रसिद्धः पापकर्मणि । पापच्यते स्म दासेर किमिदं कथितं त्वया ॥ सत्प्रेषणकराः प्रेष्या विशेष्याः सर्वतः सदा । इत्युक्तियुक्तिसंपत्ति सफलां कुरु कोविद || जानीयात्प्रेषणे भृत्यान्बान्धवान्विधुरागमे । मित्राणि चापदाकाले भार्याश्च विभवक्षये ॥ १२६ प्रमाणीकृत्य मद्वाक्यं ममादेशं च मानय । यथा ते संपदां प्राप्तिरन्यथानर्थसंगमः ॥ १२७ श्रुत्वेति तलरक्षः स सुपक्षस्तु सुलक्षणः । लक्षीकृत्य निजात्मानमाचख्यौ मरणे द्रुतम् ॥ नृप देहि श्रियं स्फीतां हर वा मम सांप्रतम् । कुरु प्रसादं क्रोधेन मृत्युभाजनमेव वा ॥ दत्स्व राज्यं दयां कृत्वा सर्वं वा हर भूपते। मां मानय मनोहारिन् मूर्धानं छिन्धि वा नृप ।। न युक्तं दहनं देव सधनश्च्छना मम । व्यरंसीदिति संभण्य तलरक्षी दयार्द्रधीः ॥ १३१ क्रुद्धेन स च निर्धाट्य विबन्ध्य तलरक्षकम् । स जडे निगडे कृत्वा कारागारेऽप्यचिक्षिपत् ।।
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समान हमेशा क्षणिक और देखते देखते नष्ट होनेवाला है ।। ११५ – १२१ ॥ इस लक्ष्मीके लिये मनुष्यों को मारना पडेगा, परंतु वह लक्ष्मी भी स्थायी नहीं है, नाशवंत है । प्राणिवध पाप होता है और पापसे अतिशय हीन दुर्गति प्राप्त होती है। प्राणियोंका नाश करनेवाले उस धनसे क्या प्राप्त होगा ? अतः ऐसी लक्ष्मी मुझे नहीं चाहिये। हे नाथ, आप दुसरा कुछ कार्य हो तो कहिये ” ॥ १२२-१२३ ॥ पापकर्म करनेमें प्रसिद्ध दुर्योधनने यह भाषण सुना । उसे क्रोध आया । वह बोला “अरे दास, तू हमेशा पापकर्ममें पचता है और इससमय तू यह क्या कह रहा है, कुछ समझता है ? जो आज्ञाधारक नोकर होते हैं वे सर्वत्र हमेशा नम्र रहते हैं । इस लिये जो उक्तियुक्ति की सम्पत्ति है वह तुम सफल करो। अर्थात् जो आगे सुभाषित कहा जाता है उसके मुआफिक तुम चलो । आज्ञा देकर नोकरका स्वभाव जाना जाता है । संकट आनेपर बंधुओंकी परीक्षा होती है। आपत्तिके समय मित्रोंकी परीक्षा होती है और वैभव नष्ट होनेपर पत्नीकी पहिचान होती है । इस लिये मेरा वचन प्रमाण समझकर मेरी आज्ञा तू मान जिससे तुझे सम्पत्तिकी प्राप्ति होगी अन्यथा अनिष्टकी प्राप्ति होगी यह निश्चित समझ # ॥। १२४ - १२७ ॥ दुर्योधन राजाका भाषण सुनकर न्यायपक्ष धारण करनेवाले सुलक्षणी चाण्डालने [कोतवालने] अपने आत्माको उदेशकर मरणके विषयमें यह भाषण किया - "हे राजन्, विपुल सम्पत्ति आप मुझे देवें अथवा उसे हरण करें । मुझपर आपकी कृपा होवे अथवा क्रोधसे मुझे मृत्युका पात्र बनाये। मुझे दया करके राज्यदान करे अथवा मेरा सर्वस्व हरण करें। मेरा आप उचित आदर करें अथवा मेरा मस्तक छेदे । परंतु हे देव, कपटसे घर जलाना मुझे योग्य नहीं दीखता है ।" दयार्द्र बुद्धिका कोतवाल ऐसा बोलकर चुप हो गया । १२८ - १३१ ॥ क्रोधसे दुर्योधनने तलवरको - कोतवालको बांधा, उसके
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