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पाण्डवपुराणम्
पुनस्ते. पाण्डवास्तत्र विषादमदवर्जिताः । अध्यूपुर्व्यसनातीता युताः प्रीतिभरेण च ॥११० ते हायनमितं कालं कलयन्तः कलोन्नताः । सकलाः सकला भूपा आसते स्माम्बया सह ॥ दुष्टेन धार्तराष्ट्रेण धृष्टेनानिष्टचेतसा । लाक्षाधाममहादाहश्चिन्तितस्तद्धतिकृते ।।११२ ज्वालिते ज्वलनेनाशु जतुवेश्मनि विस्तृते । ज्वलिष्यन्ति तदन्तःस्थाः पाण्डवाश्चण्डमानसाः॥ इति संमन्त्र्य सद्योध्रा स्वतन्त्रेण सुमन्त्रिणा। दुर्योधनेन क्रुद्धेन चिन्तितं मारणं हृदि ॥११४ क्षणेन क्षणदायां स दिवाकीर्ति सुकीर्तिमान् । अकीर्तयद्गहध्वंसं ज्वलितेन कृशानुना ॥११५ जनंगम जनैर्गम्यं मन्दिरं सुन्दरं त्वकम् । ज्वालय ज्वलनैनाशु ज्वलता च मदाज्ञया॥११६ दास्यामि ज्वालिते वत्स मन्दिरे वाञ्छितं तव । यत्तुभ्यं रोचतेऽस्माभिस्तदेयं याचनां कुरु ।। मा विलम्बय शीघेण दहनं देहि मन्दिरे । ग्रामधामरमावाञ्छा वर्तते चेत्तवाधुना ।।११८ इत्युक्ते सोऽवदद्वाणी किमुक्तं नृपसत्तम । न युक्तं युक्तियुक्तानामिदं संनिन्दितं बुधैः॥ धनसंग्रहणं नृणां जीविताएं सुजीवनम् । तजीवितं क्षणस्थायि क्षणिकं तृणबिन्दुवत् ॥१२० खापतेयमपि खापसदृशं सारवर्जितम् । मेघवृन्दसम नित्यं क्षणिकं दृष्टनष्टकम् ।।१२१
पाण्डव संकटरहित होकर प्रीतिसे उस गृहमें रहने लगे। कलाओंमें उन्नत, कलासहित वे सब राजा अर्थात् पाण्डव एक वर्ष कालतक अपनी माताके साथ रहे ॥ ११०-१११॥ अनिष्ट कार्य करनेमें जिसका मन तत्पर रहता है, ऐसे दुष्ट निर्लज्ज दुर्योधनने पाण्डवोंका घात करनेके लिये लाक्षागृहका महादाह हृदयमें निश्चित किया अर्थात् उस गृहको आग लगानेका मनमें ठहराया ॥ ११२ ॥ यह विस्तृत लाक्षागृह अग्निसे शीघ्र जलनेपर उसके भीतर रहनेवाले चण्डचित्त पाण्डव जलकर मर जायेंगे। क्रुद्ध, स्वतंत्र और उत्तम योद्धा ऐसे दुर्योधनने योग्य मंत्रीके साथ इस प्रकार विचार कर मनमें पाण्डवोंको मारना निश्चित किया ॥ ११३-११४ ॥
लाक्षागृहदाह सुकीर्तिमान दुर्योधनने रात्री होनेपर कुछ क्षणसे चाण्डालको बुलाया। और प्रज्व. लित अग्निसे लाक्षागृह जलानेकी उसे आज्ञा दी। लोकप्रवेशको योग्य ऐसे इस मन्दिरको प्रज्वलित अग्निके द्वारा मेरी आज्ञासे हे चाण्डाल, तू शीघ्र जला दे। यह मंदिर जलानेपर हे वत्स, तुझे मैं तेरा जो अभीष्ट होगा वह दूंगा। जो वस्तु (धन,धान्यादिक) तुझे पसंद हो वह हम देंगे ।तू याचना कर। देरी मत कर, जल्दी घरमें आग लगा दे। गांव, घर, लक्ष्मी आदिकी इच्छा हो तो अभी घरमें आग लगादे।” इस तरह दुर्योधनके कहनेपर चाण्डाल बोलने लगा। " हे राजश्रेष्ठ दुर्योधन, आप यह क्या बोल रहे हैं, युक्तिसे विचार करनेवालोंको आपका यह भाषण योग्य नहीं लगेगा। सज्जन विद्वान् इसकी निंदा करेंगे। जीने के लिये मनुष्योंको धनसंग्रह करना पडता है वह ही सुजीवन होता है, परंतु वह जीवित क्षणस्थायी है, तृणपर पडे हुए ओसके बिंदुसमान वह क्षणिक है। धन भी निद्राके समान निःसार है, मेघसमूहके
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