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द्वादशं पर्व
आवासरं विशालेऽस्मिन्विपिने रन्तुमिच्छया । विभैौषहानये स्थेयं भवद्भिर्वैरिदर्पहः ॥९८ TS त्रियामायां सुमित्रैश्च पवित्रैरत्र सद्धिया । जाग्रद्भिः सुस्थिरं स्थेयं युष्माभिर्निश्चलात्मकैः ॥९९ नेत्रान्ध्यमेडतां कर्णे गले घुघुरतामपि । कुर्वन्ती देहसंस्थैर्य सुषुप्तिर्मरणायते ॥ १०० इत्थं विदुरभूपेन वने स्थित्वा स्थिराशयाः । पाण्डवाः शिक्षयित्वाथं वनं जग्मे सुबुद्धिना । स तत्र चिन्तयंश्चित्ते चिरं चतुरमानसः । पाण्डवानां सुखोपायं समास्तेऽपायवर्जनम् ॥१०२ तावता विदुरस्यासीत्सुरङ्गाखनने मतिः । तथा यतो भवेत्तेषां निर्गमो विधुरे स्थिते ॥१०३. खातज्ञानिति संचिन्त्य पप्रच्छ स्वच्छमानसः । आहूयादात्परां शिक्षां सुरङ्गाखनने स च ॥ ते खातज्ञास्ततस्तूर्णं सन्निशान्तस्य कोणके । सुरङ्गां कर्तुमुद्युक्ता रेभिरेऽचलचित्तकाः ।। १.०५ द्राघीयसीं सुरां ते गमने निर्गमे पराम् । गूढां गूढतरामूढा विधाय पिदधुस्ततः ॥ १०६ ज्वालितेऽपि निशान्तेऽस्मिन्धार्तराष्टैः सुराष्ट्रगैः । निर्गच्छन्तु ततस्तूर्णं पाण्डवाः सत्पथाखिलाः इति तां रङ्गतस्तूर्णं सुरङ्गां तद्गुहान्तरे । निर्माप्य विदुरस्तस्थौ शर्मणा चिन्तयातिगः ।। १०८ स्वयं न लक्षिता तेन पाण्डवानां सुखात्मनाम् । सुरङ्गा ज्ञापिता नैव प्रच्छन्ना पिहिताभवत् ।
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तुमको प्रतिदिन वनमें ही क्रीडा करनेके लिये जाना चाहिये । वैरियोंका मद नष्ट करनेवाले आप संपूर्ण दिवसभर क्रीडा करने की इच्छासे विघ्नोंकी हानि करने के लिये वनमें ही ठहरें ॥ ८९-९८॥ रात्रिमें इस महल में धीरतापूर्वक पवित्र मित्रोंके साथ जागृत रहते हुए निर्मल बुद्धिसे आप स्थिर रहें
९९ ॥ गाढ निद्रा नेत्रोंमें अन्धपना, कानों में बहिरापन, और कण्ठमें घरघरी उत्पन्न करती है और देहको निश्चल बनाती है । इस लिये वह मरणके समान होती है ॥ १०० ॥ सुबुद्धिवाले विदुर राजाने वनमें रहकर इसप्रकारसे स्थिर अभिप्रायवाले पाण्डवोंको उपदेश दिया अनंतर वे वनको चले गये ॥ १०१ ॥ चतुर मनवाले विदुरराजाने पाण्डवोंके अपायरहित सुखोपायका वनमें रहकर बहुत देर तक विचार किया । विचार करते समय अचानक सुरङ्ग खोदनेकी बुद्धि उनको सूझी, जिससे कि संकट आनेपर उनका पाण्डवों का निर्गमन होगा । स्वच्छ अन्तःकरणवाले विदुर राजाने इस प्रकार विचार कर खोदनेका परिज्ञान रखनेवालोंको बुलाया और सुरङ्ग खोदने के लिए आज्ञा दी । खोदनेकी कला जाननेवाले उन मनुष्योंने शीघ्र उस महलके कोने में निश्चलचित्त होकर सुरङ्ग खोदने के लिये उद्युक्त होकर प्रारंभ किया, अर्थात् सुरंग खोदनेके लिये उन्होंने प्रारंभ किया । गूढतर चतुर ऐसे खोदने वाले पुरुषोंने आने जाने में सुखकर बडी गूढ सुरङ्ग खोदकर फिर ढँक दी। सुखकर राष्ट्रमें रहनेवाले कौरवोंके द्वारा यह महल जलाने परभी सुरङ्गसे पाण्डव सन्मार्गसे शीघ्र चले जायेंगे ऐसे विचारसे उस महलके भीतर विदुरने आनंदसे सुरंग बनवाई और चिन्तारहित होकर वे सुखसे रहने लगे ॥१०२-१०८॥ विदुर राजाने स्वयं वह सुरंग नहीं देखी और सुखी पाण्डवोंकोभी उन्होंने उसकी सूचना भी नही दी थी। वह गुप्तरीतिसे उन्होंने आच्छादित करवाई || १०९ ॥ वे विषाद मदरहित
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