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। द्वादशं पर्व । सुपार्श्व पार्श्वकर्तारं सुपार्श्व पार्श्ववर्तिनाम् । स्वस्तिकोद्भासिपादान्तं स्तौमि सत्पार्श्वसिद्धये ॥१ अथैकदा सभायां स यादवानां विधेः सुतः। समागतो नतो नः सोत्कण्ठैर्माधवादिभिः॥ सत्यभामाशुभाभोगभवनं भासुरं गतः। तयापमानितः प्राप पत्तनं कुण्डिनं मुनिः॥३ तत्र च श्रीमतीभीष्मसुतां तां रुक्मिणोऽनुजाम् । रुक्मिणीं वीक्ष्य दक्षः स सहर्षोऽभूत्स्वमानसे।। पुण्डरीकाक्षमाक्षोभ्य नारदस्तत्प्रवार्तया। प्रेरितो बलदेवेन स चचाल सुकुण्डिनम् ॥५ स नियुज्य निजां सेनां तत्पुरागमनाय च । हलायुधेन तत्प्रापच्छिशुपालेन वेष्टितम् ॥६ रुक्मिणी रुक्मभूषाभां नागवल्लीसुरालये। गतां वर्धापनव्याजाजहार मधुसूदनः ॥७
जंधायें उत्तम हाथीकी शुण्डाके समान विघ्न दूर करनेवाली थी । जिनके पाप विनाशक दो चरण कमल तुल्य थे। जिनके नख उत्तम नक्षत्रके समान निर्मल थे। जिनकी विद्वत्ता और वैभव अपार था वे कान्तिसे चमकनेवाले प्रभु नेमिजिनेश्वर इस जगतका रक्षण करे ॥ २०१-२०२ ।।
ब्रह्म श्रीपालजीके साहाय्यकी अपेक्षा जिसमें है ऐसे भट्टारक शुभचन्द्रविरचित भारत नामक पाण्डवपुराणमें यादवोंके द्वारिकामें प्रवेशका और नेमिजिनेश्वरकी
उत्पत्तिका वर्णन करनेवाला ग्यारहवा पर्व समाप्त हुआ।
[पर्व १२ वा] हमेशा समीप रहनेवाले अर्थात् भक्ति करनेवाले भव्योंको अपने समीप करनेवाले अर्थात् समीचीन धर्मोपदेश देकर अपने समान करनेवाले तथा जिनके शरीरके दो पार्श्व बाजु अतिशय सुंदर हैं, स्वस्तिक चिह्नसे शोभायुक्त हुए हैं चरण जिनके ऐसे सुपार्श्वजिनेश्वरकी समीचीन सामीप्यकी सिद्धिके लिये मैं स्तुति करता हूं ॥१॥
किसी समय यादवोंकी सभामें ब्रह्मदेवका पुत्र नारद आया तब उसे नम्र और उत्कण्ठा धारण करनेवाले कृष्णादिकोंने नमस्कार किया। इसके अनंतर प्रकाशमान, शुभ और विस्तृत सत्यभामाके महलमें नारदमुनि गये। परंतु उसके द्वारा अपमानित होकर वे वहांसे कुण्डिनपुरको चले गये ॥२-३॥ उस नगरमें रूक्मीकी छोटी बहिन तथा श्रीमति और भीष्मराजाकी कन्या रुक्मिणी चतुर नारदने देखी और मनमें वे हर्षित हुए ॥ ४॥ कमलके समान जिसकी आंखें हैं, ऐसे कृष्ण को इस वार्तासे नारदने क्षुब्ध किया। बलभद्रसेभी श्रीकृष्णको प्रेरणा मिली तब वे दोनों कुण्डिनपुरको चले गये ॥ ५॥ कुण्डिनपुरको आनेके लिये अपनी सेनाको आज्ञा देकर वे श्रीकृष्ण बलभद्रके साथ शिशपालके द्वारा वेष्टित की गई कण्डिनपरीको आगये ॥६॥ नागवली नामक देवीके
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