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________________ एकादशं पर्व २३५ पितृभ्यां मघवा दत्त्वा देवदेवं जगन्नुतम्। नटित्वा नटवन्निन्ये निर्मलं भोगसंपदम् ॥१९७ नियोज्य सुरसंघातान् रक्षणे दक्षिणोऽप्यगात् । नेमिस्तु नम्रनाकीशसेवितो ववृधे तराम।।१९८ कलया कान्तितः कनः परः कुमुदवान्धवः। विधुववृधे शुद्धोदधि संवर्धयन्सुधीः ॥१९९ नेमि नानिमिषनिकरैः संगतो वृद्धिमाप्य, रिङ्ङ्घन्क्षोण्यां क्षितिपपतिभिर्वीक्षितः क्षिप्रगत्या। स्वस्याङ्गुष्ठेऽमृतमयमहान्यादमास्वादयंश्च, पादस्थैर्य तदनु सुगति संगतोऽभूत्कुमारः॥ वकं यस्य महेन्दुसुन्दरतरं पद्मस्य पत्रे इव, नेत्रे कर्णकजे सुकुण्डलयुते भालं विशालं महत् । बाहू कल्पतरू इवार्थजनको वक्षः सुरक्षाक्षमम् , कूलं वाञ्जनपर्वतस्य परमा नाभिर्गभीरा शुभा॥ काञ्चीदामगुणोत्कटा स्फुटकटिः स्तम्भोपमोरू परौ जधे विघ्नहरे सुहस्तिकरवत् पादौ च पापापही । पद्माभौ नखराः समृक्षविशदा वैदग्ध्यमैश्यं महत् स श्रीनेमिजिनेश्वरो जगदिदं पातु प्रभाभासुरः ॥२०२ इति श्रीभट्टारकशुभचन्द्रप्रणीते ब्रह्मश्रीपाल साहाय्यसापेक्षे श्रीपाण्डवपुराणे महाभारतनाम्नि यादवद्वारिकाप्रवेशश्रीनमीश्वरोत्पत्तिवर्णनं नामैकादशं पर्व ॥११॥ पाप और विघ्नोंको दूर करनेवाला नृत्य इन्द्रने किया और प्रभुको अपने गोदमें स्थापन कर वह द्वारिकानगरीको गया ॥ १९२-१९६ ॥ जगत् जिनकी स्तुति करता है ऐसे देवाधिदेव नेमिजिनको इन्द्रने मातापिताके पास देकर और नटके समान नृत्य कर प्रभुको निर्मल भोगसम्पत्ति दी। अनुकूल प्रवृत्ति करनेवाला इन्द्र प्रभुके रक्षणकार्यमें देवोंको नियुक्त कर स्वयं स्वर्गको गया। नम्र स्वर्गपति-इन्द्रोंसे सेवित नेमिप्रभु उत्तरोत्तर बढने लगे ॥ १९७-१९८ ॥ कलासे, कान्तिसे, सुंदर रात्रि विकासि कमलोंका बंधु उत्तम चंद्र जैसे समुद्रको वृद्धिंगत करता है वैसे कला,कान्तियोंसे सुंदर, पृथ्वीको आनंदित करनेवाला मानो बंधु ऐसे तनि ज्ञानोंके धारक नेमिजिनेश बढने लगे ॥ १९९ ॥ अनेक देवसमूहोंसे वेष्टित नेमिनाथ तीर्थकर बढकर भूमिपर जल्दी जल्दी रिखते हुए अनेक राजाओंने देखे। अपने अंगुठेमें इन्द्रने स्थापन किया अमृतमय महाहारको वे आस्वादन करते थे। प्रभुके पाओंमें प्रथम स्थैर्य आगया अनंतर वे उत्तम गमनसे संगत हो गये अर्थात् चलने लगे ॥ २०० ॥ जिनका मुख चन्द्रके समान अधिक सुन्दर था। दो नेत्र पद्म कमलके दो दलोंके समान दीर्घ थे। जिनके दो कमलके समान कान उत्तम कुण्डलोंसे युक्त-भूषित थे। जिनका भाल विशाल-रुंद और बडा था। दो बाहु कल्पवृक्षके समान याचकोंको इच्छित पदार्थ देनेवाले थे। और जगत्का रक्षण करनेमें समर्थ जिनका वक्षस्थल मानो अंजनपर्वतका तट था और जिनकी गंभीर नाभि अतिशय शुभ थी। ऐसी कान्तिसे चमकनेवाले प्रभु नेमिजिन इस जगतका रक्षण करे। जिनकी पुष्ट कमर करधौनांसे सुंदर दीखती थी और जिनकी ऊरू खंबेके समान थी। और दो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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