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द्वादशं पर्व
२३५ ज्ञापयित्वा हृतां तां तान्कम्बुशब्देन तौ द्रुतम्। अचलां चालयन्तौ च चेलतुश्चञ्चलात्मकौ ॥ रुक्मी मद्रीसुतस्तावच्छ्रुत्वा तद्धरणं हठात् । तौ चेलतुर्घनाटोपघोटकैरिदैः समम् ॥९ प्राङ्नियुक्तं बलं तावद् द्वारिकातः समागमत् । वैकुण्ठबलदेवाभ्यां युयुधाते च तौ मदात्॥ उभयोः सैन्ययोर्वीरा वल्गन्ति विगलच्छराः। वदन्तो विविधां वाणी विदन्तो मृतिमात्मनः रुक्मिण्या दर्शितं विष्णू रुक्मिणं स्वसहोदरम् । प्रबध्य नागपाशेन स्वरथाधोऽक्षिपत्तराम् ।। दमघोषसुतं क्रुद्धं शतदोषापराधिनम् । हरिहरिरिवात्यर्थ जघान करिणं क्रुधा ॥१३ । संगरं रणतूर्येण तूर्णितं स निषिद्धय च। सबलः सह सैन्येनोर्जयन्तगिरिमासदत् ॥१४ उत्साहेन समुत्साही विवाह्य विष्टरश्रवाः। तां द्वारिका पुरीं प्राप पताकाकोटिसंकटाम् ॥१५ अथैकदा मुदा दूतं दुर्योधनमहीपतिः । प्राहिणोच्च हृषीकेशमिति शिक्षासमन्वितम् ॥१६ . गत्वा दूतः स विज्ञप्तिं चकेरीति स्म सस्मयः। इति वैकुण्ठ सोत्कण्ठमकुण्ठो भविता सुतः॥ यदि ते प्रथम पुत्री ममापि भविता यदि। तयोविवाह इत्येवं भवतानियमाल्लघु ॥१८
मंदिरमें सुवर्णालंकारोंकी तुल्य कान्ति धारण करनेवाली रुक्मिणी पूजा करनेके बहानेसे गई थी। वहांसे मधुसूदनने - कृष्णने उसे हरण कर लिया। उसको हमने हरण कर लिया है इस बातकी कृष्णबलदेवोंने शंखध्वनिसे सूचना दी और चञ्चल स्वभाववाले वे कृष्ण बलभद्र पृथ्वीको हिलाते हुए शीघ्र चलने लगे ॥७-८॥ रुक्मी और मद्रीसुत-शिशुपाल दोनोंने बलसे रुक्मिणीका हरण किया है ऐसा सुना तब वे दोनों विशाल आटोपसे युक्त घोडों और हाथियोंके साथ लडनेके लिये निकले। पूर्वमें जिसको आज्ञा दी चुकी थी ऐसा सैन्यभी द्वारिकानगरीसे वहां आया था। वे दोनों [ रुक्मी और शिशुपाल ] श्रीकृष्ण और बलदेवके साथ गर्वसे लडने लगे॥९-१०॥ जिनके हाथोंसे बाण छूट रहे हैं ऐसे दोनों सैन्योंके वीर गर्जना करने लगे। अपना मरण न जानते हुए नानाविध भाषण आवेशसे बोलने लगे॥११॥ रुक्मिणाने अपने भाई रुक्मीको दिखाया तब श्रीकृष्णने अपने नागपाशसे बांधकर अपने रथके नीचे उसको डाल दिया। दमघोषपुत्र-शिशुपालने कृष्णके सौ अपराध किये थे इसलिये हरि-सिंह जैसे हाथीको मारता है वैसे हरिने-कृष्णने शिशुपालको अतिशय क्रोधसे मार डाला ॥ १२-१३ ॥ रणवाद्योंसे शब्दमय युद्धको कृष्णने बन्द कर दिया और बलदेवके साथ सैन्यको लेकर ऊर्जयन्तपर्वतपर वह आगया। आनंदित और सामर्थ्यशाली श्रीकृष्णने उत्साहसे रुक्मिणीके साथ विवाह किया और कोटयवधि पताकाओंसे व्याप्त द्वारिकानगरीको वह आया ॥१४-१५॥ किसी समय दुर्योधनराजाने श्रीकृष्णके पास उपदेशसहित एक दूत आनंदसे भेज दिया। वह दूत द्वारिकाको जाकर आश्चर्यचकित होकर इस प्रकार विज्ञप्ति करने लगा। “हे वैकुण्ठश्रीकृष्ण, यदि तुझे चतुर पुत्र होगा और मुझे यदि प्रथमतः पुत्री होगी तो उन दोनों का नियमसे शीघ्र विवाह होना चाहिये ऐसा मैं उत्कंठासे कहता हूं।" इस प्रकार दूतका वचन सुनकर कृष्णने
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