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पाण्डवपुराणम् अम्बास्य विपुलं सर्वमेनोवृन्दं जनोद्भवम् । त्वं भवसारनीरेशं विधुतुदसमं शुभे ॥१६७
क्रियागुप्तम् । अस्य खण्डयेत्यर्थः। अयं देवि जगन्नाथ पुत्रहेतो शुभानने। जगत्रयवधूरूपसीमे कोकिलनिःस्वने ॥१६८
बिन्दुरहितम् । एवमुचरपद्यानि ताभिYढार्थकानि च । प्रयुक्तानि तया शीघ्रं कथितानि विशेषतः ॥१६९ बुद्धिः स्वाभाविकी तस्या नानाप्रश्नोत्तरक्षमा! भ्रूणेनालकृता रेजे मणिना हारयष्टिवत्।१७० बभार गर्भजं तेजो निसर्गरुचिरञ्जिता । राज्ञी रत्नमयं धाम भूर्यथाकरगोचरा ।।१७१ पीडा च गर्भजा तस्या नाभूत्स्वप्नेऽपि दुर्वहा । वह्निकान्तिरिवादर्शे प्रतिबिम्बाकृतिं गता। मा भूद्भङ्गस्त्रिवल्याश्चोदरे ऽस्याः पूर्ववत्स्थितेः। न कृष्णत्वं कुचद्वन्द्वचूचके हंसवद्गतः ॥१७३
श्लोक बोलकर इसमें क्रियापद कहनेके लिये माताको विज्ञप्ति की। · अंबास्य विपुलं ' यह श्लोक कहा। इसका अर्थ इस प्रकार हे माता, हे शुभे इसका यह लोगोंसे उत्पन्न होनेवाला विपुल और सर्व पापसमूह संसारसारको समुद्र समान है और राहुके समान है। तू इसे " इस श्लोकमें क्रियापदके बिना अर्थपूर्णता नहीं होती। तब माताने कहा 'अंबाऽस्य' इस श्लोकमें 'अस्य' यह क्रियापद है — अस्य 'का अर्थ खंडन कर ऐसा है। अर्थात् जो संसारसारको समुद्र समान है,जो राहुके समान है ऐसा लोगोंका विफल सर्व पापसमूह हे शुभे हे माता तू तोड ॥ १६७ ॥ एक देवताने बिन्दुच्युतक श्लोक कहा और माताने इसमें बिंदु कहाँ नहीं होना चाहिये वह बताया। ‘जयं देवि जगन्नाथ ' इत्यादिरूप श्लोक है। उसका अभिप्राय बिन्दु होनेसे जो होता है वह इस प्रकार जगतका नाथ ऐसे पुत्रका तू हेतु है अर्थात् ऐसा पुत्र तू उत्पन्न करेगी। हे शुभानने, तू त्रैलोक्य की स्त्रियोंके रूपकी सीमा है, तूं कोकिलके समान स्वरवाली है। हे देवि, जयको' ऐसा अर्थ होता है परंतु 'जयको' इस द्वितीयान्त शब्दके साथ अर्थसंबंध नहीं जुडता है। ‘जयं देवि ' इसमें बिंदु निकालनेपर 'जय' ऐसा शब्द अर्थात् क्रियापद होता है । तब हे देवी तेरा सर्वदा जय हो यहां जयं शब्दमेंसे अनुस्वार निकालने पर 'जय' ऐसा लोट्लकारका मध्यम पुरुषका एकवचनका रूप होता है तब अर्थसंबंध योग्य हो जाता है ॥ १६८ ॥ इस प्रकार देवियोंने गूढ अर्थवाले पद्योंका उत्तरके लिये प्रयोग किया परंतु माताने शीघ्रतया विशेषतासे उत्तर कहे । माताकी बुद्धि स्वभावसेही नाना प्रश्नोंके उत्तर देनेमें समर्थ थी। गर्भसे सुशोभित होनेसे तो उसकी बुद्धि नायक मणिसे हारयाष्टिके समान शोभती थी॥१६९-१७०|| खनीकी भूमि जैसी रत्नमय तेज धारण करती है वैसे निसर्ग कान्तिसे शुद्ध शिवादेवीने गर्भका तेज धारण किया था। शिवादेवीको गर्भकी पीडा स्वप्नमेंभी नहीं हुई जो कि दुबह हुआ करती है। जैसे दर्पणमें प्रतिबिंबित हुई अग्निकी कान्ति पीडादायक नहीं होती है। शिवादेवीका उदर पूयवत् था इसलिये उसकी त्रिवलीका
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