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एकादशं पर्व
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न पाण्डु वदनं जातं तस्या आलस्यसंततिः । ववृधे चार्मको गर्भे तथापि सुखकारकः।। १७४ अथैवं नवमासेषु गतेषु सुषुवे सुतम् । श्रावणे शुक्लपक्षे सा षष्ठयां चित्रागते विधौ ॥ १७५ देवी देवीभिरुक्ताभिः सेविता सुतमाप सा । पद्मबन्धुं यथा प्राची नलिनं नलिनीव च ॥ त्रिभिर्बोधैः समायुक्तः शिशू रेजे शुभैर्गुणैः । मन्दं मन्दं ववैौ वायुस्तदा सद्गन्धबन्धुरः || संमार्जितर जोराजिर्भरादर्शसमा बर्भो । विकसन्नवनीरेजरोमाञ्चान्वितविग्रहा ॥ १७८ देवानामासनान्युच्चैरकस्मात्प्रचकम्पिरे । तदा शिरांसि जिष्णूनां धुन्वम्मौलिमणीन्यभुः ॥ कल्पे घण्टाघनारावः सैंहशब्दश्च ज्योतिषि । भेरीध्वनिरभूद्वाने भवने शङ्खनिस्वनः ॥ १८० तदुत्पन्नं तदा सर्वे श्रुत्वा चाकस्मिकं ध्वनिम् । विज्ञाय जन्म देवस्य बभूवुर्हर्षिताननाः ।। १८१ ततोऽपीद्राज्ञया सुज्ञा निर्ययुर्निजधामतः । स्वस्वासनसमासक्ताः ससुरासुरनायकाः ॥ १८२ वियतस्तेऽवतीर्याशु तत्पुरं सपुरंदराः । सुराः प्रापुः प्रमोदेन कुर्वन्तो भूमिमेजयम् ॥ १८३ शक्राज्ञया शची शुद्धा प्राविशत्प्रसवालयम् । ततोऽदर्शि तया माता सुतेन सममञ्जसा ।। १८४
भङ्ग नहीं हुआ। हंसकी समान गतिवाली रानीके स्तनाग्रोंमें कालेपनाभी उत्पन्न नहीं हुआ । रानीका मुख सफेद नहीं हुआ। उसको आलस्यभी नहीं था । तथापि गर्भमें सुखकारक बालक बढने लगा ॥ १७२–१७४ ॥ तदनंतर- नौ मास पूर्ण होनेपर शिवादेवीने श्रावण शुक्ल षष्ठी दिन चित्रा नक्षत्रपर चन्द्र आनेपर पुत्रको जन्म दिया । जैसी पूर्व दिशा पद्मोंके बंधु - सूर्यको, जैसी कमलिनी. कमलको प्राप्त करती है वैसी श्रीआदिक देवियोंसे सेवित शिवादेवीने पुत्रको प्राप्त किया । तीन ज्ञानोंसे - मति, श्रुत और अवधिज्ञानसे युक्त जिन बालक शुभ गुणोंसे शोभने लगा । उस समय उत्तम गंधसे मनको लुभानेवाला वायु मन्द मन्द बहने लगा । वायुसे जिसकी धूल दूर हो गई है। ऐसी भूमि दर्पणके समान निर्मल हुई । प्रफुल्ल हुए नव कमलरूपी रोमाञ्चों से मानो उसका विग्रहदेह व्याप्त हुआ ।। १७५-१७८ ॥ जिनजन्मके समय देवोंके आसन अकस्मात् कम्पित हुए । और जिनके किरीटोंके मणि हिल रहे हैं ऐसे इन्द्रोंके मस्तक शोभने लगे । कल्पों में - सौधर्मादिक सोलह स्वर्गो में वण्टाओंके घण घण शब्द होने लगे । ज्योतिष में- ज्योतिर्लोकमें सिंहोंका ध्वनि होने लगा यानी सिंहध्वनि के समान ध्वनि होने लगा | व्यंतरनिवासोंमें भेरियोका ध्वनि होने लगा और भवनों में शंखोंका ध्वनि होने लगा। उस समय कल्पादिकोंसे उत्पन्न हुए आकस्मिक ध्वनि सुनकर प्रभुका जन्म हुआ ऐसा समझकर सर्व हर्षित हुए ।। १७९ - १८१ ॥ जिनजन्म उपर्युक्त चिह्नोंसे समझकर देवोंके और असुरोंके स्वामियोंके -इंद्रोंके साथ अपने अपने आसनों पर वाहनोंपर आरूढ होकर अपने अपने घरोंसे सौधर्मेन्द्रकी आज्ञासे सर्व देव निकले । इन्द्रोंके साथ वे देव आनन्दसे आकाशसे उतरकर पृथ्वीको कम्पित करते हुए जिनेश्वरके नगरको - द्वारिकाको शीघ्र आगये ॥ १८२ - १८३ ॥ इन्द्रकी आज्ञासे पवित्र इन्द्राण प्रसूतिगृह प्रवेश किया। अनंतर उसने पुत्रके साथ शय्यापर माताको देखा । गूढ़ होकर इन्द्राणीने
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