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________________ २२८ पाण्डवपुराणम् नर्ति नाकगणिका वरहावभावा वर्वर्ति मातृहृदयानुगता च काचित् । संबोभवीति कमनीयसुकामधेनुः संजोहवीति वरकामगुणं च काचित् ॥१४५ बाभायते मातृमता च काचित्पापायते मातृतनुं च काचित् । लालायते मातृकराच्च वस्तु दाधायते मातृमनश्च काचित् ॥१४६ मीमांसते ताममरी सुदाम्ना दीदांसतेऽन्या च मलं सुमातुः। शीशांसते मोहभरं च काचिद्वीभत्सते दस्युदरं च काचित् ॥१४७ दीप्रैः सुदीपैः सुरकामिनी च काचित्सुभक्तिं निशि जैनमातुः। चर्कति काचिद्वरवस्त्रदत्तिं शक्राज्ञया नाकवधूः समस्ता ॥१४८ नररूपं समादाय नर्नति सुरनर्तकी । तच्चेष्टितं प्रकुर्वाणा हासयन्त्यखिलाञ्जनान् ॥१४९ कदाचिजललीलाभिः कदाचिद्वरनर्तनैः। रमयन्ति स्म तां देव्यः सेवासक्तसुमानसाः॥१५० गीतगोष्ठी गता माता देव्या साकं रसान्विता | कदाचिद्विविधा वार्ता विदधे शुद्धमानसा ॥ दिक्कुमारीसमं राज्ञी कालमित्थं निनाय च। सा बभार परा कान्ति कला चान्द्रमसी यथा॥ अभ्यर्णे नवमे मासेऽन्तर्वत्नीमथ सद्रसैः । देव्यस्ता रमयामासुर्गद्यपद्यैर्वराक्षरैः ॥१५३ माताको लाकर देती थी। कोई देवता सुंदर कामधेनु होकर माताको इच्छित वस्तु देती थी। और कोई देवता उत्तम इच्छाके अनुसार दान देती थी। माताको प्रिय कोई देवता अतिशय शोभती थी और कोई देवता माताके शरीरकी वारंवार रक्षा करती थी। कोई देवता उसके हाथसे वस्तु लेती थी। माताको कोई देवता अतिशय पुष्ट करती थी। कोई देवता माताके साथ बारबार तत्त्वविचार करती थी। और कोई अमरी उत्तम मालासे उसे अतिशय तेजस्विनी करती थी। कोई देवता माताका मल स्वच्छ करती थी। कोई देवता माताके मोहको नष्ट करती थी और कोई देवता चोरसे उत्पन्न हुई भीति हराती थी। कोई सुरस्त्री प्रकाशमान दीपोंसे रातमें जिनमाताको सुभक्ति करती थी और कोई देवता इंद्रकी आज्ञासे उत्तम वस्त्र माताको देती थी। इसप्रकार सब देवतायें माताकी सेवा कर ती थी। कोई देवता पुरुषका रूप धारण कर नृत्य करने लगी। तब उसका अनुकरण करनेवाली अन्य देवतायें सब लोगोंको हंसाने लगी ॥ १४५-१४९॥ जिनका मन सेवामें आसक्त हुआ है ऐसी कोई देवतायें कभी जलक्रीडाओंसे, कभी उत्तम नृत्योंसे माताके मनको रमाती थी। शुद्ध मनवाली माता कभी देवियोंके साथ गीतगोष्टी करती थी, और कभी रसोंसे युक्त नानाविध वार्तायें करती थी। इस प्रकारसे दिक्कुमारियोंके साथ माताका काल व्यतीत होता था। चन्द्रकी कला जैसी प्रतिदिन उत्तम कान्तिको धारण करती है वैसी-जिनमाताभी प्रतिदिन अधिकाधिक कान्ति धारण करती थी। जब नौवा महिना समीप आया तब गर्भिणी जिनमाताको देवांगनायें उत्तम अक्षररचनासे युक्त ऐसे गद्यपद्योंसे रमाने लगी ॥ १५०-१५३ ॥ [प्रश्न] हे देवि, पुष्पोंसे अवगुण्ठित कौन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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