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________________ एकादशं पर्व २२७ चन्दनच्छटयाच्छन्नमच्छिन्नमणिभूतलम् । काश्चित्कुर्वन्ति कम्राङ्गाश्चन्दनागलता इव ॥१३५ पुष्पस्वस्तिकमाभेजुः सुभुजैर्भोगदायिकाः। काश्चिद्धरां सुशोधिन्या शुद्धां कुर्वन्ति कोविदाः ।। काश्चित्पकानसंपनमोदकौदनपायसम् । पूपाश्च मण्डकाखण्डखज्जकामृतशर्कराः ॥१३७ सूपशाल्यभमुद्गानं नानाव्यञ्जनसंयुतम् । दधीनि पिच्छिलान्याशु शुद्धदुग्धानि सद्रसान् ।। प्राज्यमाज्यं करम्बं च कर्पूरलवणान्वितम् । शक्रस्य दुर्लभं तक्रं ददते मातृभुक्तये ॥१३९ पादप्रक्षालनं काश्चित्काश्चिदादर्शकं ददुः। वक्रेक्षणाय चान्द्रं वा बिम्बामिद्धं धरागतम् ॥१४० पुष्पमालां करे कृत्वा मातुरग्रे स्थिता बभुः। काश्चिच्छाखिसुशाखा वा सेवां कतुमिहागताः।। मुकुटं कुण्डले काश्चित्काश्चिद्धारलतां शुभाम् । ददते कण्ठिकां काश्चिच्छाखा वा कल्पशाखिनः।। पुष्परेणुसमाकीर्णा क्षरन्मुक्ताफलाविलाम् । महीं मार्जन्ति काश्चिच स्वर्णरेणुसुसंकराम्॥१४३ पटुघोण्टाफलाखण्डखण्डान्येलालवङ्गकैः । नागवल्लीदलान्यन्या ददु गलता इव ॥ १४४ कोई देवतायें विस्तृत वल्लियोंके समान दिखती थी। माताके शरीरकी रक्षा करनेवाली कोई देवतायें अपने हाथोंमें नग्न खङ्ग धारण कर उसके समीप खडी होगयी तब वे आकाशमें रहनेवाली बिजलीके समान दीखती थी। सुंदर शरीरवाली कोई देवतायें विस्तीर्ण रत्नजटित भूतलको चन्दनजलकी छटासे सिञ्चित करती हुई चन्दनवृक्षकी लताके समान दीखती थी। भोगोंके पदार्थ देनेवाली कोई चतुर देवतायें सम्मार्जनासे जमीन को स्वच्छ करती थी और कोई उसपर अपने सुंदर बाहुसे पुष्प, खस्तिक आदि रंगावलीकी रचना करती थी। कोई देवतायें पक्कानोंसे परिपूर्ण मोदक, भात, पायस-दूधखीर, पुए, मांडे, शक्करके खाजे, अमृतशर्करा, सूप, (दाल) शालितन्दुलोंका भात, मूंगकी खिचडी ये सब नानाव्यंजनोंसहित पक्वान्न माताके लिये देती थी, गाढा दही, शुद्ध दूध, अच्छे रस, उत्तम घी और जौका आटा तथा कपूर, नमकसे युक्त इन्द्रकोभी दुर्लभ ऐसा तक माताको भोजनके लिये देती थी। कोई देवता चरण धोती थी और कोई देवता माताके हाथमें दर्पण देती थी। वह दर्पण ऐसा मालूम होता था मानो माताको मुख देखनेके लिये पृथ्वीपर प्रकाशमय चन्द्रही आया हो। पुष्पमाला हाथमें लेकर माताके आगे खडी हुई कोई देवतायें माताकी सेवा करनेके लिये आई हुई वृक्षोंकी शाखाओंके समान शोभती थी। कोई देवता माताको मुकुट, और कुण्डल देती थी। कोई देवतायें सुंदर हारयष्टि देती थी। कोई देवता सुंदर कण्ठी देती थी। ये सब देवतायें कल्पवृक्षकी शाखाओंके समान शोभती थीं। पुष्पपरागसे व्याप्त, और इधर उधर गिरे हुए मोतियोंसे भरी हुई, सोनेकी धूल जिसमें मिली हुई है ऐसी भूमीको कोई देवतायें झाडती थी। उत्तम सुपारीके आधे टुकडे, इलायची, लवंग इनसे युक्त नागवल्लीके पान नागवल्लीके समान कोई देवता माताको देती थी॥ १३३-१४४ ॥ कोई स्वर्गकी वेश्या उत्तम हावभावके साथ बारबार नृत्य करती थी। और माताके हृदयके अनुसार कोई देवता जिस पदार्थमें माताकी इच्छा होती थी वह वस्तु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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