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। एकादशं पर्व । पद्मप्रभ सुपमाभं पद्माकं प्रणमाम्यहम् । पद्मसंचारिचरणं पनालिङ्गितवक्षसम् ॥१ अथानाक्षीद्गणाधीशमिति मागधनायकः । तदानीं यादवेशानां का भूतिः क स्थितिर्वद ॥२ तदाकर्ण्य गणाधीशोऽवादीद्गम्भीरया गिरा। शृणु श्रेणिक वक्ष्यामि यदूनां चरितं वरम् ॥३ प्रबुद्धोऽधकवृष्णिस्तु दत्त्वा राज्यं स्वसूनवे । समुद्रविजयाख्याय प्रावाजीद्गुरुसंनिधौ ॥४ समुद्रविजयो यावत्पाति राज्यं जयोद्धरः। वसुदेवस्तदा क्रीडां कर्तुकामोऽभवन्मुदा ॥५ गन्धवारणमारुह्य चलच्चामरवीजितः। वदद्वायः स्वसैन्येन स रन्तुं याति कानने ॥६ नानाभरणभाभारभूषितोदारविग्रहाः। निर्विशन्तं विशन्तं च कामिन्यो वीक्ष्य व्याकुलाः ॥७
शत्रुओंको नष्ट किया है, जो पुण्यसे धर्मबुद्धिका धारक है ऐसा अर्जुन पुण्यसे शोभता है ॥२७३॥ ब्रह्मचारी श्रीपालजीने जिसमें साहाय्य किया है ऐसे भट्टारक शुभचन्द्रविरचित भारतनामक पाण्डवपुराणमें भीमके विघ्नोंका विनाश, अर्जुनको शब्दवेधिविद्याकी
प्राप्ति इन विषयोंका वर्णन करनेवाला दसवां पर्व समाप्त हुआ।
[पर्व ११ वा] जिनका पद्म-कमल लांछन है, जिनके देहका वर्ण उत्तम पद्मके समान है, सुवर्णपोंके ऊपर जिनके चरण संचार करते हैं, जिनका वक्षःस्थल पद्मासे-लक्ष्मीसे आलिङ्गित है, ऐसे पद्मप्रभ जिनेश्वरको मैं प्रणाम करता हूं ॥१॥ ___मगध देशके राजा श्रीश्रेणिकने गणाधीश गौतम मुनीश्वरको उस समय यादववंशके राजाओंकी कैसी विभूति थी और वे कहाँ रहते थे ऐसा प्रश्न पूछा तब वह सुनकर गणेशने गंभीर वाणीसे हे श्रेणिक, मैं यादवोंका उत्तम चरित्र कहता हूं तू सुन ऐसा कहा ॥२-३॥ अन्धकवृष्णिने संसारसे विरक्त होकर अर्थात् वैभवादिक क्षणनश्वर हैं ऐसा समझकर अपने ज्येष्ठ पुत्र समुद्रविजयको राज्य दिया और गुरुके समीप जाकर मुनिदीक्षा धारण की। जिस समय जयोत्साही समुद्रविजय राज्यपालन कर रहे थे उस समय वसुदेवकुमार उनका सबसे छोटा भाई होनेसे आनंदसे क्रीडा करनेमें अपने दिन बिताता था। चंचल चामर उसके ऊपर दुरते थे, उसके आगे वाद्य बजते थे, वह उन्मत्त हाथीपर चढकर अपने सैन्यके साथ उपवनमें क्रीडाके लिये जाता था। उस समय अनेक अलंकारोंके कान्तिसमूहसे भूषित, सुंदर शरीरवाली नगरकी - शौरिपुरकी स्त्रियां क्रीडाका अनुभव करनेवाले और नगरमें प्रवेश करनेवाले वसुदेवको देखकर ब्याकुल हो जाती थीं। अर्थात् जब वसुदेव क्रीडा करनेके लिये नगरसे उपवनमें जाते थे और वहांसे फिर नगरमें आते थे तब सर्व तरुण स्त्रियाँ उनका सौन्दर्य देखकर मोहित हो जाती थीं ॥ ४-७॥ व्याकुल होकर वे पतिको भोजन
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