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यक जिज्ञासा प्रगट की। आर्यिकाने उसकी कथा इस प्रकार कही- यहां कौशाम्बी पुरीके राजा विन्ध्यसेनकी पत्नी विन्ध्यसेनाकी कुक्षिसे उत्पन्न यह वसन्तसेना नामकी सुन्दर साध्वी कन्या है । इसके पिता विन्ध्यसेनने इसे युधिष्ठिरको देनेकी कल्पना की थी। किन्तु दुर्भाग्यसे कौरवों द्वारा उनके जलाये जानेकी दुखद वार्ता सुनकर वह तप करनेको उद्यत हुई । विन्ध्यसेनने उसे दीक्षामें उद्युक्त देखकर समझाया कि- हे पुत्रि ! ऐसे महापुरुष अल्पायु नहीं हुआ करते हैं । इसलिये तू कुछ समय ठहर कर युधिष्ठिरकी प्रतीक्षा कर। फिर यदि उसकी प्राप्ति न हो सके तो दीक्षा ले लेना। तबसे यह यथायोग्य संयमका पालन करती हुई यहां मेरे पास रहती है । इन छह प्राणियोंको देखकर यद्यपि वसन्तसेनाको पाण्डव होनेकी आशंका अवश्य हुई । परन्तु कुन्तीके यह कहनेपर कि " हम सब दैवज्ञ ब्राह्मण हैं । तेरे पुण्योदयसे पाण्डव जीवित होंगे, तू दीक्षाके विचारको छोड कर श्रावकधर्ममें स्थिर रह ।" वह कुछ निश्चय न कर सकी।
तत्पश्चात् पाण्डव वहांसे चलकर त्रिशङ्ग नामक पुरमें गये । वहांके राजा चण्डवाहनकी गुणप्रभा आदि दस तथा पियमित्र सेठकी एक नयनसुन्दरी, ये युधिष्ठिरके लिये संकल्पित ग्यारह कन्यायें उनकी मृत्युवातासे दुखित हो धर्मध्यानमें उद्युक्त होकर रह रही थीं । " एक मुहूर्तके भीतर पाण्डव यहां आवेगें " ऐसा उन्हें दमितारि मुनिसे ज्ञात हुआ । तदनुसार पाण्डव वहां पहुंचे और उक्त ग्यारह कन्याओंका विवाह युधिष्ठिरके साथ कर दिया गयो ।
१ हरिवंशपुराणमें इस वनका नाम श्लेष्मान्तक बतलाया गया है। वहां वे तापस वेषमे पहुंचे। वहां कहा गया है कि वसुन्धरपुरके राजा विन्ध्यसेन और उनकी पत्नी नर्मदाके वसन्तसुन्दरी नामक कन्या थी। वह गुरूओंद्वारा पहिले ही युधिष्ठिरके लिये दे दी गई थी। किन्तु उनके जलनेकी बात सुनकर पुराकृत कर्मकी निन्दा करती हुई उसने जन्मान्तरमें पतिदर्शनकी अभिलाषासे वहां तापसानममें तपश्चर्या प्रारम्भ की। पाण्डवोंके तापसाश्रममें आनेपर उसने आतिथ्य कर उनके क्षुत्पिपासा युक्त मार्गके श्रमको दूर किया। हे बाले ! इस नवीन वयमें तुझे वैराग्य कैसे हुआ ? इस प्रकार कुन्तीद्वारा पूछे जानेपर राजपुत्रीने विनयपूर्वक उत्तर दिया कि मैं गुरूओं ( माता-पिता) द्वारा पहिले ही कुरुवंशजात कुन्तीके ज्येष्ठ पुत्रके लिये निवेदित की गई थी। किन्तु उनके जल जाने की वार्तासे खिन्न हो तपश्चरणमें स्थित हुई हूं। यह सुनकर कुन्तीने उसे सान्त्वना दी। इस प्रकार वह पतिप्राप्तिकी आशासे यथापूर्व स्थित रही। (ह. पु. ४५, ६९-९०)।
२ हरिवंशपुराणके अनुसार राजा व सेठ इन पुत्रियोंके ज्येष्ठ कुन्तीपुत्रके लिये देना चाहते हैं, परन्तु वे पुत्रियोंने ' हमारा पति अन्यलोकको प्राप्त हुआ' ऐसा जानकर उस द्विजको स्वीकार नहीं करती हैं । यथाराजा सभार्य इम्यश्च महापुरुषवेदिनौ । कुन्तीपुत्राय ताः कन्या ज्यायसे दातुमिच्छतः ।।
तास्तु निश्चितचित्तत्वादन्यलोकगतोऽपि हि । स एष पतिरस्माकमिति नेच्छन्ति तं द्विजम् ॥ ह. पु. ४५, १०३-१०४
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