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दशमं पर्व द्रोणः स्पष्टं समाचष्टे कुशली कुशलं तव । विद्यते सोऽब्रवीन्नाथ त्वत्प्रसादात्कुशल्यहम् ॥ शबरं गुरुसंगेन समग्रप्रीतिमानसम् । स बभाण वचो वाग्मी प्रमाणपथपारगः ॥ २५८ भो किरात सुकान्तारवासिन् विघ्नौघघातक । मत्सेवासंविधानज्ञ मदाज्ञाप्रतिपालक ॥ २५९ त्वत्सदृक्ष मया दृष्टो भुजिष्यो न हि भूतले । वल्लभश्च समालोक्यो लोकलोकनतत्पर ।। २६०. किंचिद्याचयितुं त्वां च समीहेऽहं हितावह । यदि दास्यसि याचे तद्याच्ञाभङ्गो हि दुःखदः ।। सोsभाणीद्भयतो भिल्लः कम्प्रः संक्षुब्धमानसः । स्वामिन्निदं किमुक्तं ह्यहं त्वदाज्ञाप्रपालकः ।। मादृशां शक्तिमुक्तानां संपत्त्यंशासहात्मनाम् । तत्किमस्ति च यद्देयं न स्याल्लोके भवादृशाम् ॥ शृणु सेवक स प्राह तद्देयं विद्यते तव । दित्सा चेदेहि मे हस्ते वचो वृणोमि यद्वरम् || २६४ दित्सामीति च भिल्लेन समुक्ते सोऽब्रवीद्गुरुः । देहि दक्षिणसद्धस्ताङ्गुष्ठं संछेद्य मूलतः ।। २६५ श्रुत्वा स गुरुसद्भक्त्या गुर्वाज्ञाप्रतिपालकः । तथेति प्रतिपन्नोऽभूत्तद्गुणग्रामरञ्जितः॥२६६ विच्छिद्य दक्षिणाङ्गुष्ठं भिल्लस्तस्मै समार्पयत् । अङ्गुष्टस्य च का वार्ता दत्ते भक्तः स्वजीवितम् ।।
करनेमें उद्युक्त वह विनयवान् भील उनका विनय करने लगा। गुरु प्राप्त होने पर कौन बुद्धिमान विनय रहित होगा। कुशलयुक्त द्रोणने "हे भील, तेरा कुशल है न ? ऐसा स्पष्ट पूछा । शिष्यने भी हे नाथ आपके प्रसादसे मैं सकुशल हूं" ऐसा उत्तर दिया । वह भील गुरुके समागमसे अतिशय हर्षितचित्त हुआ । प्रमाणमार्ग अन्तको पहुंचनेवाले युक्तियुक्त वचन बोलनेवाले द्रोणाचार्य बोले- जंगल में रहने चाला, विघ्नोंका नाशक, मेरी आज्ञाका पालक, सेवाके उपाय जाननेवाला, तुझसा शिष्य इस भूतल पर मैंने नहीं देखा । तू मुझे प्रिय है; तू बारबार आकर हमसे देखने लायक है और लोगोंको देखने में तू तत्पर रहता है ।। २४९-२६० ॥ हे हितकार्य करनेवाले भील, मैं तुझसे कुछ याचना करना चाहता हूं । यदि तू देगा तो मैं याचना करूंगा क्यों कि याचनाका भङ्ग होने से याचना करने वालेको दुःख होता है || २६१ ॥ जिसका मन क्षुब्ध हुआ है ऐसा वह भील कांपता हुआ कहने लगा, कि हे स्वामिन्, आप यह क्या कह रहे हैं ? मैं आपकी आज्ञाका अवश्य पालन करूंगा । मैं संपत्तिका अंश भी सहन नहीं करता हूं अर्थात् मैं दरिद्री हूं, संपत्ति देने में मुझ सरीखे आदमी असमर्थ होते हैं । हे गुरू, आप सरीखे पूज्य पुरुषोंको जगतमें ऐसी कोनसी वस्तु है जो देने लायक नहीं है । अर्थात् पूज्योंको अदेय वस्तुही नहीं है । अपने प्राणभी पूज्योंके लिये देना चाहिये । जो वर मैं मांगता हूं उसका वचन यदि तुझे देनेकी इच्छा है तो दे । मेरी देने की इच्छा है ऐसा भील ने कहा, तत्र गुरुने कहा, कि दाहिने उत्तम हायका अंगुठा मूलसे तोडकर मुझे दे ॥ २६२-२६५॥ गुरुः विषयक उत्तमभक्ति से उनका वचन सुनकर उनके गुणसमूहसे अनुरक्त होकर उसने अंगुठा देने - का स्वीकार किया । उस भीलने दक्षिण अंगुठा तोडकर द्रोणाचार्यको दिया । जो भक्त है उसने अंगुठा दिया तो क्या वह बडी बात है वह तो स्वजीवितभी अर्पण करता है । जिसका अंगुठा
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