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पाण्डवपुराणम्
ईक्षाश्च चरन्तं तं किंरातं पार्थसद्गुरुः । नमन्तं तं गुरुं शान्तमजानन्तं निजं गुरुम् ॥ २४४ तावता गुरुणा पृष्टः शबरश्चरणाश्रितः । निविष्ट इति कस्त्वं हि को गुरुर्भवतः सतः ॥ २४५ सोsवोचरवाक्येन प्रीणयन्सार्जुनं गुरुम् । किरातोऽहं कलाकीर्णो द्रोणो मेऽस्ति गुरुर्महान् ।। यस्य प्रसादतो लब्धा विद्या सर्वार्थसाधनी । मया पश्याम्यहं तं चेद्भजे तस्य सुशिष्यताम् ॥ परोक्षोऽपि मया द्रोणः प्रत्यक्षीकृत्य भक्तितः। आराध्यते विशुद्धात्मा समृद्धिसिद्धिबुद्धिमान् ॥ श्रुत्वा द्रोणोऽगदील यदीदानीं च पश्यसि । साक्षाल्लक्षणसंपूर्णं तर्हि तं किं करिष्यसि ॥ समाचख्यौ किरातः स पश्यामि यदि सांप्रतम् । तत्तस्याहं करिष्यामि दासत्वं दासतो लघुः परोपकारकरणे सामर्थ्यं मम नास्ति च । मादृशां शक्तिहीनानां पर्याप्तं गुरुसेवया ॥। २५१ वीक्षितं तं विजानासि साभिज्ञानपरं गुरुम् । जानामीति व प्रोक्ते तेन द्रोण इदं जगौ ॥ सोsहं गुरुस्तवास्मीति द्रोणनामा मनोहरः । सिद्धविद्यो विदां मान्यः सर्वलोकहितंकरः ॥ निशम्येति वचस्तस्य किरात चोत्सवाश्रितः । साभिज्ञानं गुरुं मत्वा जहर्ष हसिताननः ॥२५४ ततोऽष्टाङ्गं क्षितौ क्षिप्रं मिलन्मूर्ध्ना ननाम सः। गुरुमिष्टे चिरं लब्धे यत्नवान्न हि को भवेत् ।। विनयी विनोद्युक्तो विनयं विततान सः । को हि लब्धे गुरौ धीमान्विनयाद्रहितो भवेत् ॥
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जानता था । उसने शान्त ऐसे गुरुको नमस्कार किया || २३९ - २४४ ॥ चरणका आश्रय लेनेवाले भीलको गुरुने पूछा, कि हे भील, तू कौन है ? और तेरा गुरु कौन है ? तब अर्जुनसहित आये हुए गुरुको उत्तम भाषणसे सन्तुष्ट करता हुआ भील बोलने लगा । मैं भील हूं अनेक कलाओंसे पूर्ण द्रोणाचार्य मेरे गुरु हैं । उनके प्रसादसे मैंने सर्व इष्ट वस्तुओं को देनेवाली विद्या प्राप्त की है । यदि वे गुरु मुझे देखनेको मिलेंगे तो मैं उनका शिष्य होऊंगा । यद्यपि द्रोणाचार्य मुझे परोक्ष हैं तो भी उस निर्मल आत्माको मैं भक्तिसे प्रत्यक्ष करके उसकी आराधना करता हूं । वे मेरे गुरु समृद्धिशाली, कार्यसिद्धि करनेवाले और बुद्धिमान हैं ॥ २४५ - २४८ ॥ इसके अनंतर द्रोणाचार्य उसे कहने लगे, हे भील तू सर्वलक्षण - सम्पूर्ण गुरुको यदि देखेगा तो तू उसे क्या करेगा ? मिलने कहा यदि मैं उनको इस समय देख लूंगा तो मैं उनका दास हो जाऊंगा। मैं उनके दाससे भी छोटा हूं । परोपकार करने में मुझे सामर्थ्य नहीं है । शक्तिहीन जो मुझ सरखे पुरुष हैं उनको गुरु सेवाही पर्याप्त है । यदि वे गुरु तुझे दीख पडेंगे तो क्या कुछ चिह्नोंसे युक्त उनको तू जान सकेगा? मैं उनको जानूंगा, ऐसा कहनेपर द्रोणने इस प्रकार कहा - हे भील, जिसको सर्व विद्याओंकी सिद्धि हुई है, जो विद्वानोंको मान्य है, सर्व लोगोंका हित करनेवाला और मनोहर है वह द्रोणगुरु मैं हूं ऐसा कहने पर किरातको बडा आनंद हुआ । उपर्युक्त चिन्होंसे युक्त गुरुको समझकर हसितमुख भील हर्षित हुआ । तदनंतर पृथ्वीपर अपना मस्तक नम्र करके भीलने गुरुको अष्टाङ्ग नमस्कार किया । अपना प्रिय गुरु बहुत दिनसे प्राप्त होनेपर कौन बुद्धिमान् यत्नवान् नहीं होगा । विनय
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