________________
दशम पर्व
२११ श्रुत्वेति तद्वचः पार्थस्तं शशंसेति शुद्धवाक् । सन्तो गुणान्न मुञ्चन्ति दूरीभूतेऽपि सजने ॥ त्वं महान्महतां मान्यो गुरुभक्तिपरायणः । गुणाग्रणीरिति स्तुत्वा किरातं सोऽगमत्पुरम् ॥ साश्चर्यहृदयो लब्ध्वा गुरु द्रोणं व्यजिज्ञपत् । नत्वा स्थित्वा क्षणं तत्र सार्जुनोऽर्जुननामभाव।। भो गुरोऽध महारण्यं गतेन रिपुघातिना। किरातो वीक्षितः क्षिप्रं तत्र तूणीरसंगतः ॥२३५ कुण्डलीकृतकोदण्डः सेषुधि सशरासनम् । तं वीक्ष्य समुवाचाहं कस्त्वं किं वेत्स्यरण्यजः॥ स ब्रूते स्म किरातोऽहं द्रोणाचार्योपदेशतः। शब्दवेधित्वमापन्नो भ्रमंस्तिष्ठामि सद्वने॥२३७ इत्युक्तिं तस्य चाकर्ण्य द्रोणाहं गतवानिह । त्वदने कथितुं सर्वमित्यवादीद्धनंजयः॥२३८ स्वामिन्स निष्ठुरो दुष्टो दुरात्मानिष्टचेष्टितः। निरपराधिनो जीवान्प्रहन्ति हतमानसः ॥२३९ स्वामिस्त्वदुपदेशेन मायावेषेण मायिकः । जीवराशिं हरन्पङ्क किरातः कुरुते सदा ॥२४० द्रोणः पार्थवचः श्रुत्वा दधौ दुःखं स्वमानसे। वने वनचरोऽवार्यः कथं पाप्मेति चिन्तयन् ॥ तद्वारणकृते द्रोणः सपार्थः पृथुमानसः। ततः स्थानाचचालाशु वनं गन्तुं समुद्यतः ॥२४२ मायावेषधरो द्रोणः समियाय वनं क्षणात् । पश्यन्पथिकसंघातं शाबरं सशरासनम् ॥२४३
वचनवाले अर्जुनने उसकी प्रशंसा की । योग्य ही है कि सज्जन परोक्ष-दूर होनेपरभी उसके गुणोंको नहीं छोडते हैं। हे भील, तू महापुरुष है और महापुरुषोंको मान्य है। तू गुरुभक्तिमें तत्पर है,गुणिओंका अग्रणी है ऐसी स्तुति कर वह अर्जुन अपने हस्तिनापुरको चला गया । आश्चर्ययुक्त हृदयसे धवलवर्णका अर्जुन क्षणतक ठहरकर गुरु द्रोणको नमस्कार कर विज्ञप्ति करने लगा ।। २२३-२३४ ॥ " हे गुरो शत्रुका घात करनेवाला मैं आज महारण्यमें गया था। वहां तरकसके साथ एक भील मेरे देखनेमें आया । उसने अपना धनुष्य कुंडलाकार किया था अर्थात् धनुष्य सज्ज किया था । बाण
और धनुष्यसहित उसे देखकर मैने अरण्यमें उत्पन्न हुआ तूं कौन है ? और तुझे किस विषयका ज्ञान है ? " इसतरह पूछनेपर वह बोला कि " मैं किरात हूं द्रोणाचार्यके उपदेशसे मैंने शब्दवेधका ज्ञान प्राप्त किया है । मैं इस वनमें घूमता हुआ रहता हूं"। यह उसका भाषण सुनकर “ मैं यह सर्व वृत्त कहनके लिये आपके पास आया हूं" ऐसा अर्जुनने कहा ॥२३५-२३८॥ हे स्वामिन् वह भील दुष्ट है, निष्ठुर है । दुष्ट स्वभावका और अनिष्ट आचरण करनेवाला है। जिसका मन मर गया है अर्थात् जिसके हृदयमें दया नहीं है ऐसा वह कपटी भील मायावेष धारण कर आपके उपदेशसे निरपराधी प्राणियोंको मारता है । प्राणियोंको नष्ट कर हमेशा पाप कमाता है । द्रोणाचार्य अर्जुनका वचन सुनकर मनमें दुःखित हुए । वनमें फिरनेवाला पापी भील कैसा रोका जायगा इसका वे विचार करने लगे । उदार मनवाले द्रोणाचार्य उस भीलको रोकनेके लिये उद्युक्त होकर वेष बदलकर अर्जुनके साथ उस स्थानसे वनमें गये। मार्गमें धनुष्योंको धारण करनेवाले भील लोगोंको देखते हुए अर्जुनके गुरुने जाते हुए भीलको देखा । वह अपने गुरुको अर्थात् द्रोणाचार्यको नहीं
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org