________________
२०८
पाण्डवपुराणम् कन्दरे सुन्दरे देशे निकुञ्ज च शिलोच्चये। तं पश्यन्पप्रथे पार्थः परार्थसार्थकोविदः ॥१९८ तावता हस्तसंरुद्धश्वानं वीरं वनेचरम् । करोत्क्षिप्तशरं तूणसंबद्धपार्श्वभागकम् ॥१९९ करालास्यं गतालस्यं वेगनिर्जितमारुतम् । विकटाक्षं च ध्वांक्षाभपक्षभागमधोमुखम् ॥२०० काकतुण्डस्वनासानं कोलकेशं च केशिनम् । ददर्श दारुणं भिल्लं धनुस्स्कन्धं धनंजयः॥२०१ सोऽभाणीतं समावीक्ष्य प्रचण्डः पाण्डुनन्दनः। कस्त्वं सुहृत् क संवासी का विद्या त्वयि वर्तते॥ इति पृष्टः समाचष्टे शबरः स स्मयावहः । दुर्निरीक्ष्यः क्षमामुक्तः कोपारुणितलोचनः ॥२०३ समाकर्णय सत्कर्ण व्याकर्णाकृष्टकार्मुकः। अभी तिंकरोज्येषां परमप्रीतिदायकः ॥२०४ शबरोऽहं वनेवासी धनुर्विद्याविशारदः। शरासनशरेणाशु भेत्तुं शक्नोमि देहिनः ॥२०५ शब्दवेधविधौ शुद्धः समृद्धो वेध्यवेधकः । मादृक्षः कोऽपि भूपीठे न लक्ष्यो लक्ष्यहजनैः॥ श्रुत्वेति पिप्रिये पार्थः पराक्रान्ति सुचापिनः । भिल्लस्य भालभूभङ्गपरिक्षिप्तपरात्मनः॥२०७
ढूंढता हुआ अर्जुन श्रमरहित होकर उस जंगलकी संपूर्ण पृथ्वीपर भ्रमण करने लगा। पर्वतोंकी सुंदर गुफा, लतागृहके प्रदेश, पर्वत इत्यादि स्थानोंमें उस शब्द-वेधी व्यक्तिको ढूंढनेवाला परोपकारके कार्यसमूहमें चतुर अर्जुन घूमने लगा ॥ १९७-१९८ ॥ इतने में अपने हाथसे कुत्तेको पकडा हुआ, एक हाथसे जिसने बाणको उठाया है, जिसके पार्श्वभागमें बाणोंका तरकस बंधा है, जिसका मुख भयंकर है, आलस्यसे जो दूर है, वेगसे वायुको जीतनेवाला, जिसकी कान आँखे आदि इंद्रियाँ भयंकर हैं। जिसके देहके विभाग दो पसवाडे कौवेके समान काले थे अर्थात् जिसका संपूर्ण देह काले रंगका था । जिसका मुख नीचा था, कौवेके मुहके समान जिसकी नाक थी, जिसके केश सूकरके केशसमान थे । जिसका सर्वांग केशोंसे भरा हुआ था, जिसके कंधेपर धनुष्य था, ऐसे वनमें घुमनेवाले भयंकर वीर भिल्लको देखा ॥ १९९-२०१॥ प्रचण्ड अर्जुनने भिल्लको देखकर पूछा कि, हे मित्र, तुम कौन हो, कहां रहते हो और तुममें कौनसी विद्या है ? ऐसा पूछनेपर गवर्युक्त, जिसको देखनेमें लोगोंको डर लगता है, जो क्षमासे रहित और क्रोधसे लाल आखोंवाला वह भिल्ल बोलने लगा-सुंदर कर्णवाले मित्र, कानतक धनुष्यको खीचनेवाला, भय रहित परंतु अन्य को भययुक्त करनेवाला, आप लोगोंपर अतिशय प्रीति करनेवाला मैं, आपको मेरा परिचय देता हूं, सुनो । २०२-२०४ ॥ मैं वन में रहनेवाला धनुर्विद्यामें चतुर भील हूं, धनुष्यसे छोडे गये बाणसे मैं प्राणीको तत्काल विद्ध करता हूं। शब्द-वेध-विद्यामें मैं शुद्ध-निर्दोष हूं। उस विद्यामें समृद्ध हूं अर्थात् उस विद्यामें मुझे कुछभी जानना अवशिष्ट नहीं रहा है । लक्ष्यको विद्ध करनेवाले जनोंने मुझ सरीखा कोई भी वेध्यको विद्ध करनेवाला नहीं देखा है । भालप्रदेशकी भौंओके टेढेपनसे शत्रुओंको जिसने भीति उत्पन्न की है ऐसे उत्तम धनुर्धारी भीलका पराक्रम सुनकर अर्जुन आनान्दत हुए और बोलने लगे, हे शब्दवेधिन् तुमने सिंह के समान कुत्ता अपने सामर्थ्यसे
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org