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दशमं पर्व सबैकं मृगदंशं स मृगारिमिव सूबतम् । शरप्रहारसंरुद्धवदनं वीक्षते स्म च ॥१८७ बाणप्रहारसंरुद्धतुण्डः सचण्डमानसः । केनाकारि स्वयं श्वायं धनुर्विद्याविदात्मना ॥१८८ नरो न दृश्यते कश्चिदत्रासासाहारकृत् । शब्दवेधविदो नान्यो विधातुमीदृशं क्षमः॥१८९ बाणप्रहारसंरुद्धवदनं वीक्ष्य कुक्कुरम् । शरराशिसमाकीर्णतूणं वा स व्यचिन्तयत् ॥१९० अहो द्रोणो महाप्राज्ञो मद्गुरुः प्रकटो भुवि । ध्वनिवेधविधानेन सदा मान्यो धनुष्मताम् ।। शब्दवेधं दुराराध्यं सर्वागोचरसंचरम् । जानाति चेदयं द्रोणो नान्यः कोऽपि श्रुतौ श्रुतः॥१९२ अहं तिष्ठामि तत्पार्थ शब्दवेधं सुशिक्षितुम् । गुरुणाधिष्ठितः प्राज्ञश्चापचञ्चुत्वमागतः।।१९३ तेन प्रसादतो मह्यं धनुर्विद्या सुशब्दगा। अदायि कापि नान्येभ्योऽन्तेवासिम्यो विशारदा॥ शुनको भाषमाणोऽयं ध्वनिवेधविदा हतः। केनेति विस्मयः श्रीमान्सस्मार स्मेरमानसः।। आश्चर्य धैर्यवीर्यापर्युपासितशासनः। वयः स्मरन्स्मयेनासौ बनाम विपिनं तदा ॥१९६ स तं द्रष्टुमनाः शब्दवेधिनं विशिखायुधम् । लोकयनिखिलां क्षोणी बभ्राम विगतश्रमः॥
वनमेंसे जल्दी जल्दी जाने लगा। उस वनमें एक जगह सिंहके समान ऊंचा और बाणके प्रहारसे जिसका मुख भरा है ऐसे कुत्तेको अर्जुनने देखा । जिसका चित्त क्रूर है ऐसे इस कुत्ते का मुख बाणप्रहार करके किसने भर दिया है, धनुर्विद्या जाननेवाले किसी व्यक्तिने दूंकनेवाले कुत्तेके मुँहमें ये बाण भर दिये होंगे ? इसको जिसने प्रहार किया है ऐसा मनुष्य यहां नहीं दीखता । तथा शब्दवेधको जाननेवालेके बिना ऐसा कार्य करनेमें अन्य कोई समर्थ नहीं है। बाणके प्रहारसे जिसका मुख भर गया है ऐसे उस कुत्तेको देखकर क्या बाणोंके समूहसे भरा हुआ यह तरकस है ? ऐसा विचार अर्जुनके मनमें आया । अहो महाविद्वान् दोणाचार्य मेरे गुरु हैं। वे भूमण्डल में प्रसिद्ध हैं । शब्द-वेधके कार्यसे वे धनुर्धारियोंमें हमेशा मान्य हुए हैं । शब्द-वेध विद्या बडे कष्टसे आराधी जाती है। वह सर्व धनुर्धारियोंमें नहीं पायी जाती है । यदि कोई जानते हैं तो अकेले द्रोणाचार्य ही इसे जानते हैं दूसरा कोई जानता है ऐसा मैंने कानोंसे नहीं सुना है । मैं द्रोणाचार्यके पास शब्द-वेध पढनेके लिये रहता हूं । गुरुस अधिष्ठित होकर मैं चतुर और धनुविद्यामें निपुण हुआ हूं। द्रोणाचार्यने प्रसन्न होकर मुझे शब्दमें प्रवेश करनेवाली धनुर्विद्या दी है। वह अन्य किसी विद्यार्थियोंको नहीं दी है ॥ १८५-१९४ ॥ मूंकनेवाला यह कुत्ता शब्द-वेध जाननेवाले किस मनुष्यने मारा है, यह आश्चर्य है। कुछ समझ नहीं आता है। ऐसा विचार कर कुतूहलयुक्त चित्तसे लक्ष्मीसंपन्न अर्जुन स्मरण करने लगा ॥ १९५ ॥ धैर्य और वीर्य से युक्त आर्योंके द्वारा जिस के शासनकी उपासना की जाती है अर्थात् जिस की आज्ञा मानी जाती है, जो श्रेष्ठ है ऐसा अर्जुन आश्चर्य युक्त होकर उस अद्भुत बातका स्मरण करता हुआ वन में भ्रमण करने लगा ॥ १९६ ॥ शब्द-वेधी और बाणरूपी शस्त्र धारण करनेवाले उस व्यक्तिको देखने की इच्छासे
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