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पाण्डवपुराणम् चापमास्फाल्य चापेशो मौर्वीसंधानमावहन् । जगर्न स्फूर्जथुर्यद्वत्समर्जितयशश्चयः ॥१७६ । सक्षणं क्षणिकं वीक्ष्य पक्षिणो दक्षिणेक्षणम् । अक्षमं लक्षितुं यद्वत्संदधे क्षणिकं मतम् ॥ चञ्चलं चञ्चलग्रीवं चलनेत्रं चलन्मुखम् । पक्षिणं वीक्ष्य स खान्ते दधे लक्ष्याय शेमषीम् ।। स्वोरु संस्फालयामास तदधोवीक्षणकृते । तावताधोमुखं पक्षी लुलोके स्फालनश्रुतेः ॥१७९ लोकयन्तमधोव पक्षिणं वीक्ष्य लक्ष्यवित् । जघान दक्षिणं चक्षुस्तस्य बाणेन वाणवित् ॥ तत्कुर्वाणं समावीक्ष्य द्रोणदुर्योधनादयः। तं शशंसुरिति स्पष्टं चापविद्याविशारदम् ॥१८१ चापविद्याचणाश्चित्रं दृष्टाः पूर्वमनेकशः। धानुष्को नेदृशो दृष्टो वेध्यविद्याविशारदः॥१८२ पारंगतोऽसि वेध्यस्य विद्याया विबुधाग्रणीः। क गुणी गुणसंधिज्ञं शशंसुरिति ते तकम् ॥ ततस्ते तत्कथा सार्थां कुर्वाणा धृतराष्ट्रजाः। समासेदुश्च सीदन्तो विशदं वीक्ष्य तबलम् ॥१८४ कदाचित्पृथु पार्थेशः समर्थो व्यथयन्निपून । शरासनं करे कृत्वा जगाम विपिनं वरम् ॥ . भ्रमन्भीति प्रकुर्वाणो वन्यानां स धनंजयः । श्वापदापदसंभेदी गहनं निरगाल्लघु ॥१८६
वेधनमें अतिशय प्रवीण अर्जुनको गुरुजीने आज्ञा दी । अर्जुनने अपने हाथमें धनुष्य लिया और चंचलता छोडकर वह निश्चल अर्थात् एकाग्रचित्त हुआ । चापके प्रभु, यशःसमूहको प्राप्त किये हुए अर्जुनने धनुष्यसे टंकार शब्द किया, दोरीपर बाण जोड दिया और वज्रके समान गर्जना की । जैसे क्षणिकमतका विचार करना अशक्य होता है वैसे पक्षीका चञ्चल दक्षिण नेत्र क्षणतक देखकर अर्जुनने उससे संधान किया ॥ १७४-१७७ ॥ वह पक्षी चश्चल था, उसके नेत्र चञ्चल थे और वह अपना मुख इधर उधर हिलाता था । ऐसे पक्षीको देखकर अर्जुनने अपने मनमें लक्ष्यवेध करनेका निश्चय किया । वह पक्षी नीचे देखे इसलिये उसने अपनी जंघाको हाथसे पीटा पक्षीने नीचे मुख करके जंघाके पीटनेका शब्द सुना । नीचे मुख करके देखनवाले पक्षीको देखकर लक्ष्यके ज्ञाता, बाण-विद्याको जाननेवाले, अर्जुनने उस पक्षीके दाहिने नेत्र को विद्ध किया ॥ १७८-१८० ॥ नेत्रवेधन कार्य देखकर धनुर्विद्याविशारद अर्जुनकी द्रोण और दुर्योधनादिक स्पष्टरीतिसे स्तुति करने लगे । चापविद्यामें चतुर अनेक लोक पूर्वकालमें हमने देखे हैं, परंतु वेध्यविद्यामें चतुर ऐसा धनुर्धर हमने कभी नहीं देखा “ हम इसका कार्य देखकर आश्चर्यचकित हुए हैं । अर्जुन तू वेध्य की विद्यामें पारंगत हुआ है । तू विद्वानोंका अगुआ है। तेरे समान गुणी कौन है ? दोरीके ऊपर बाण जोडनेमें तूं चतुर है " ऐसी सबोंने उसकी स्तुति की। तदनंतर अर्जुनकी अन्वर्थक कथा करनेवाले वे धृतराष्ट्रपुत्र उसका निर्मल बल देखकर दुःखी होते हुए अपने घर आगये ॥ १८१-१८४ ॥ किसी समय समर्थ महाप्रभु अर्जुन शत्रुओंको पीडित करता हुआ हाथमें धनुष्य लेकर उत्तम वनमें गया । वहां जब वह अर्जुन घूमने लगा तो वन्यपशुओंको भीति उत्पन्न हुई । श्वापदोंसे लोगोंको जो आपत्तियां होती थी वे उसने दूर की और वह
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