________________
दशमं पर्व
२०५ निशम्य कौरवाः सर्वे दुर्योधनपुरस्सराः। विषमं वेधमाज्ञाय तूष्णीत्वमगमस्तदा ॥१६५ केनेदं दक्षिणं चक्षुः क्षणस्थिति च पक्षिणः । चञ्चलं चञ्चलस्यानु वेभ्यं क चेति वादिनः॥ . पाण्डवान्कौरवान्द्रोणोऽवादीच्चापविशारदः। तथास्यांलक्ष्यविद्वीक्ष्य गिरा यम्भीररूपया॥१६७ अहं हन्मीति संधानं दधौ धनुषि पत्रिणः । सपत्रस्य गुणाप्तस्य पत्रिदक्षिणवीक्षणम् ।।१६८ . तदा धनंजयो धन्वी धनुःसंधानबुद्धिमान् । सधन्वानं गुरुं नत्वा विज्ञप्तिमिति चाकरोत् ।। विशिखाक्षेपविद्रोण सुशाखापक्षिचक्षुषः लक्ष्यस्य च क्षमोऽसि त्वं वेधन कर्तपद्यमी॥१७० विस्मयः कोज गोत्रेश मित्रस्य दीपदीपनम् । रसाले तोरणस्यापि बन्धनं यादृशं भवेत् ॥ अथवागुरुधूपित्वं मृगनाभिभवस्य च। तादृशं धन्वसंधानं तातपाद तवाधुना ॥१७२ . अन्तेवासिनि मादृक्षे सति त्वयि न युज्यते। ईदृशं कर्म संकतुं धनुःसंधानधारिणि ॥१७३ ममाज्ञां देहि ताताध वेधस्य विषमस्य च । वेधने त्वत्प्रसादेन लब्धविद्यस्य धन्विनः॥१७४ तदा तेन समुद्दिष्टो गरिष्ठो वेध्यवेधने। कोदण्डं स करे कृत्वा समुत्तस्थे स्थिरक्रियः ॥१७५
चक्षुको लक्ष्य करके विद्ध करेगा वह विद्वान्, धनुर्धारी चतुर और धनुर्वेद जाननेवालोंमें अग्रणीअगुआ माना जायगा ।" यह गुरुजी का वचन सुनकर दुर्योधनादिक सब कौरव कौवेकी आंखको विद्ध करना कठिन है ऐसा समझकर चुप रह गये । इस चञ्चल पक्षीकी यह चंचल दक्षिण आँख क्षणतक स्थिर रहती है इसलिये किसके द्वारा और कब विद्ध की जावेगी ? अर्थात् इसकी आँख कोई विद्ध नहीं कर सकेगा ऐसा दुर्योधनादिक आपसमें बोलने लगे । तब लक्ष्यका स्वरूप जाननेवाले चापविद्याचतुर द्रोणाचार्य आपसमें बोलनेवाले कौरव पाण्डवोंको गंभीर वाणीसे इस प्रकार बोलने लगे, " हे पाण्डवकौरवों, मैं उस पक्षीकी दाहिनी आंख विद्ध करता हूं" तदनंतर पक्षसे युक्त, धनुषकी दोरीपर चढा हुआ ऐसे बाणको धनुष्यपर आरोपित कर पक्षीकी दाहिनी आँखके प्रति उन्होंने संधान लगाया । इतनेमें धनुष्यसे संधान करनेमें चतुर धनुर्धारी अर्जुनने धनुर्धारी गुरुजीको इस प्रकार विज्ञप्ति की ॥१६१-१६९ ॥ “हे गुरुजी आप बाण फेकनेमें चतुर हैं, आप शाखापर बैठे हुए लक्ष्यभूत पक्षीके चक्षुका वेध करनेमें समर्थ हैं और वेधन करनेमें अब उद्युक्त हुए हैं, इसमें क्या आश्चर्य है । हमारे गोत्रके वंशके आप ईश स्वामी हो। आपका यह कार्य सूर्यको दीपसे प्रकाशित करनेके समान है, अथवा आम्रवृक्षपर तोरण बांधने के समान है, अथवा कस्तूरीको अगुरुचन्दनकी धूपसे धूपित करनेके सदृश है । अर्थात् हे पूज्यपाद, आपका यह धनुःसंधान इस समय शोभा नहीं देता है ।। १७०-१७२ ॥ हे पूज्य, धनु:संधान धारण करनेवाला मुझसरीखा विद्यार्थी आपके पास होने पर आपका यह कार्य मुझे योग्य नहीं जंचता है ॥ १७३ ॥ आपके प्रसादसे मुझे धनुर्विद्या प्राप्त हुई है, मैं धनुर्धारी हो गया हूं। इस विषम वेध्यके वेधनमें आप मुझे आज्ञा दीजिये । इस प्रकारकी अर्जुनकी विज्ञप्ति सुनकर वेध्यके
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org