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दशमं पर्व
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शब्दवेधिन् त्वया ध्वस्तो मृगदंशो मृगारिभः । बाणेन बलतस्तूर्ण पार्थस्तमित्यबीभणत् ।। सोऽब्रवीच्छृणु सुश्रोतः काममर्त्य सुकामद। कम्राङ्ग कमलाक्षस्त्वं कोमलः कमलालयः॥ कामिनीकमनीयोऽसि करुणावान् क्रियाग्रणीः। कलाकेलिकृतावास समाकर्णय मत्कृतिम्॥ गच्छताथ श्रुतः शब्दःशुनः सुश्रान्तचेतसा। शरेण स हतः शब्दवेधिना शब्दतो मया॥२११ तं शब्दवेधिनं मत्वा विस्मितः कौरवाग्रणीः। अप्राक्षीक्षिप्तसंशोभं सलोभं तं वनेचरम् ॥२१२ किरात व त्वया विद्या लब्धेयं शब्दवेधिनी। विद्यमाना फलं विद्या दत्ते च महती महत् ॥ को गुरुर्भवतामस्या विद्यायाः सुगुणाग्रणीः। शब्दविद्याप्रदातारो न दृश्या गुरवः क्वचित् ॥ इत्युक्तियुक्तिमाकर्ण्य किरातः किरति स्म च । कृतज्ञः सुकृती वाक्यं विकसद्वक्त्रपङ्कजम् ॥ रिपविद्रावणे दक्षो द्रोणोऽस्ति मम सद्गुरुः। तत्प्रसादान्मया लब्धा विद्या सच्छब्दवेधिनी॥ द्रोणस्तु गुणसंधानः सद्गुरुर्मे महामनाः। ततो विद्या मया लब्धा परेयं शब्दवेधिनी ।।२१७ शब्दवेधित्वविज्ञानमतो नान्यत्र वर्तते । अतो गुरुरयं मेऽद्य तद्विद्याविधिनायकः ॥२१८ निशम्येति वचस्तस्य पार्थः सार्थमनोरथः। अचिन्तयदिति स्वान्ते खच्छचेताश्च सूक्ष्मधीः ।।
बाणके द्वारा मार दिया है। अर्जुनका भाषण सुनकर भील बोला हे शुभकर्णवाले मदनसमान सुंदर पुरुष, इच्छित देनेवाले, सुंदर शरीर-धारक, कमलनेत्र, कोमल, लक्ष्मीके निवास, आप स्त्रियोंके मनको हरण करनेवाले, दयालु और कार्य करनेमें चतुर हैं । आप धनुर्विद्यादि कलाओंके क्रीडा-गृह हैं। मेरी कृतिका कार्यका वर्णन सुनो ।। २०५-२१०॥ मैं वन में घूमता था, मेरा मन थोडासा थका हुआ था, इतनेमें मैंने कुत्तेका शब्द सुना। तब शब्दके अनुसार शब्दवेध जाननेवाले मैंने वह कुत्ता बाणसे मार दिया। उस भीलको शब्दवेधी जानकर कौरवोंके अगुआ अर्जुन आश्चर्यचकित हुए। उन्होंने जिसका सौंदर्य नष्ट हुआ है अर्थात् जो कुरूप है तथा लोभी ऐसे भीलको कहा कि, हे किरात,यह शब्दवेधिनी विद्या तुमने कहां प्राप्त की है ? यह महान् विद्या जिसके पास होती है उसे विशाल फल देती है। उत्तम गुणधारियोंमें अगुआ ऐसे कौन महात्मा इस विद्याके दान करनेमें आपके गुरु हैं ? शब्द-विद्या देनेवाले गुरु कहा भी नहीं दीखते हैं ।। २११-२१४ ॥ अर्जुनकी भाषणयुक्ति सुनकर कृतज्ञ, विद्वान् भील जिसका मुखकमल प्रफुल्लित है ऐसे अर्जुनको इस प्रकार वचन कहने लगा । शत्रुओंको भगानेमें चतुर द्रोण मेरे सद्गुरु हैं, उनक प्रसादसे मैंने उत्तम शब्दवेधिनी विद्या प्राप्त की है। मेरे गुरु द्रोणाचार्य गुणोंका संग्रह करनेवाले और उदारचित्त हैं, उनसे मैंने यह उत्कृष्ट शब्दवेधिनी विद्या प्राप्त की है । शब्दवेधका ज्ञान उनके सिवा अन्य स्थानमें नहीं पाया जाता है। मुझे उस विद्याका विधि बतानेवाले द्रोणाचार्य मेरे स्वामी और गुरु हैं ॥२१५-२१७॥ यह किरातका भाषण सुनकर जिसके मनारथ सफल हुए हैं,जो स्वच्छ मनवाला और सूक्ष्मबुद्धिका धारक है ऐसे अर्जुनने मनमें इस प्रकारका विचार किया- द्रोणाचार्य परिवारसे सदा घिरे हुए, राजमान्य
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