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पाण्डवपुराणम् इति क्षुधजनेष्वेवं वाचालेषु घनेषु च । चञ्चलेषु न चानेतुं तं कोऽपि नयवान् क्षमः ॥१३० द्रोणो विद्रावणे दक्षो रिपूणां वीक्ष्य तत्क्षणम् । लोकान्संलोकितास्यांश्चान्योन्यं चञ्चलचक्षुषः॥ कोदण्डदण्डमापीब्य ज्ययाटनिप्ररूढया। रराजास्फालयन्स्फारो विस्फारितनिजेक्षणः ॥१३२ मूर्तिमांश्चापधर्मो वा स्थितो द्रोणः समुद्रसः। उत्कर्णान्दिग्गजान्कुर्वन्बधिरीकृतसुभुतीन् ॥१३३ कोदण्डेन प्रचण्डेनाखण्डेन चण्डरोचिषा। उवीं च दधता रेजे पुरंदरधनुःश्रिया ॥१३४ कोदण्डचण्डनादेन त्रासमीयुर्महागजाः। बभ्रमुीतितो गन्तुं पार्श्व दिग्दन्तिनामिव ।।१३५ गन्धर्वा बन्धनातीता गन्धर्वा गानवर्जिताः। गन्धर्वाः कंपनासक्ता बभूवुश्चापशब्दतः ॥१३६ तदा नागरिकाः सर्वे श्रुत्वा कोदण्डजं वरम् । कोज शत्रुः समायासीद्विचेलुरिति भाषिणः॥ स्थालीकराः सुकामिन्यो निशम्य धनुषः स्वनम् । तत्रत्या विगलद्वस्खा बभूवुर्रतितो न किम् ।। इति चापल्यमुत्पाद्य जनानां चञ्चलात्मनाम् । तं वेध्यं विधिवद्रोणो विव्याध संविधाय च ।। शरेण शिरसं द्रोणः समुत्क्षिप्य समानयत् । कन्दुकं कौरवैर्नेतुमशक्यं सकलैरपि ॥१४० तदा सुरनरा वीक्ष्य तत्कौशल्यमवर्णयन् । किन्नरास्तद्यशोराशिं गायन्ति स्माद्रिकन्दरे॥१४१
समर्थ नहीं था॥११८-१३०॥ जिनकी आंखें चंचल हुई हैं तथा जो एक दूसरेके मुखको देख रहे हैं ऐसे लोगोंको देखकर शत्रुको भगानेमें चतुर, जिसने अपनी आखें बडी की है, ऐसे महान् द्रोणाचार्य धनुष्यके अग्रभागपर जोडी हुई दोरीसे धनुष्यको नम्र कर उसका टंकार करते हुए शोभने लगे॥१३१-१३२॥ जिसका वीररस उमड आया है, ऐसा मूर्तिमंत चापधर्म ही लोगोंके आगे खडा हुआ है ऐसे द्रोणाचार्य दीखने लगे। उनके धनुष्यके टंकारसे लोगोंके कान बहिरे हो गये और दिग्गजोंने अपने कान खडे किये। जिसकी कान्ति तीव्र है और जिसने पृथ्वी धारण की है ऐसे अखण्ड प्रचण्ड धनुष्यने इन्द्रधनुष्यकी शोभा धारण की थी। उस धनुष्यके प्रचण्ड ध्वनिसे बडे हाथी त्रस्त हो गये और भयसे दिग्गजोंके पास जानेके लिये मानो भ्रमण करने लगे। धनुष्यके प्रचण्ड शब्दसे गन्धर्व-घोडे बन्धनको तोडकर भागने लगे और गन्धर्व-गानवाले देव भयसे गानरहित होकर थरथर कांपने लगे॥१३३-१३६॥ उस समय सब नागरिकोंने धनुष्यसे उत्पन्न हुआ शब्द सुना और कोई शत्रु आया होगा ऐसा कहकर वे भागने लगे। धनुष्यका शब्द सुनकर भीतीसे जिनके हाथमें थाली है ऐसी स्त्रियोंका वस्त्र गिरने लगा सच है कि भयसे क्या नहीं हो जाता ? इस प्रकार चंचल चित्तवाले लोगोंमें चपलता उत्पन्न करके द्रोणाचार्यने बाणके द्वारा उस वेध्यका-कन्दुकका वेध यथाविधि किया। अर्थात् पूर्व बाणके मस्तक में दूसरा बाण अटक गया उसके मस्तकपर तिसरा इस प्रकारसे बाणोंकी पंक्तिके द्वारा सभी कौरव जिसे नहीं ला सके ऐसे गेंदको द्रोणाचार्यने ऊपर उठाकर अपने हाथमें लिया॥१३७-१४०॥ उस समय सर्व मनुष्य और देव द्रोणाचार्यका कौशल्य देखकर उनकी प्रशंसा करने लगे और किन्नर देव पर्वतोंकी कन्दरामें उनकी यशोराशि
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