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दशमं पर्व ईदृशं शरकौशल्यं न दृष्टं नापि दृश्यते। अतोऽन्यत्रेति भूपालाः शशंसुस्तद्गुणोत्करम् ॥१४२ तत्र ते क्षणमास्थाय पाण्डवाः कौरवा नृपाः। अन्योन्यप्रीतिचेतस्का विविशुर्निजपत्तनम् ॥ . कौरवा अपि भीमस्ख पुण्यं शक्ति निरीक्ष्य च । विलक्षाः क्षान्तिमाभेजुरशक्तानां क्षमा वरा॥ एवं राज्यं प्रकुर्वत्सु तेषु कालो महान्गतः। अहो तत्र सपुण्यानां महान्कालः क्षणायते ॥१४५ अथैकदा च द्रोणाय प्रार्थना विहितामुना। गाङ्गेयेन विवाहस्य सिद्धयर्थ विधिवेदिना ॥१४६ स प्रार्थितो नृपैः सर्वैस्तथेति प्रतिपन्नवान् । ततो विवाहसंक्षोभो गाङ्गेयस्याजनि स्फुटम्॥१४७ ततो गौतमसत्पुत्री साक्षादतिरिवापरा। जनानन्दकरा तेनाभ्यर्थिता द्रोणहेतवे ॥१४८ तया तस्याथ संजातं विवाहवरमङ्गलम् । नदत्सु वाद्यवृन्देषु गायन्तीषु सुभीरुषु ।।१४९ विवाहानन्तरं तौ द्वौ दम्पती दीप्तमन्मथौ। रेमाते रतियोगेन सुरतौ सुरतोत्सवौ ॥१५० ततस्तयोः क्रमात्पुत्रोऽश्वत्थामा नामतोऽभवत् । महाधामा सुधी/रो धर्मभृद्धतिसेवकः ।। कोदण्डविद्यया सोऽभूत्सर्वधन्विमहेश्वरः। सुप्रेमप्रेरितानन्दो नन्दयन्सकलाञ्जनान् ॥१५२ एकदा तेन द्रोणेन भणिता नृपनन्दनाः। पार्थादयः पृथुप्रीताः सुशिष्यीभूतमानसाः ।।१५३
गाने लगे। इस प्रकारका बाण-कौशल्य द्रोणाचार्यही में देखा गया। वह अन्यत्र न देखा गया, न दीखता है। राजसमूह इस प्रकार उनके गुणोंके समूहकी प्रशंसा करने लगा । कन्दुकक्रीडाके स्थानपर थोडी देर तक ठहर कर पाण्डव और कौरवराजसमूहने अन्योन्य प्रेममें आसक्तचित्त होकर अपने नगरमें प्रवेश किया॥१४१-१४३॥ कौरवभी भीमका पुण्य और शक्ति देखकर खिन्न हुए और उन्होंने क्षमा धारण की। योग्यही है कि, अशक्तोंको क्षमा धारण करनाही हितकर है। इस प्रकार राज्य करते हुए उन पाण्डव-कौरवोंका महान् काल बीत गया। योग्यही है कि पुण्यवंतोंका महान् कालभी क्षणके समान बीतता है ॥१४४-१४५। किसी समय ज्योतिषविद्या जाननेवाले गांगेयने विवाह करने के लिये द्रोणसे प्रार्थना की। सर्व राजाओंनेभी प्रार्थना करनेपर द्रोणाचार्यने उनकी प्रार्थना मान्य की। तदनंतर गांगेयने विवाहकी सर्वसिद्धता प्रगटपनेसे की। गांगेयनेभीष्माचार्यने साक्षात् दूसरी रतिके समान गौतम ब्राह्मणकी जनानन्ददायक सत्कन्या द्रोणके लिये निश्चित की । गौतमपुत्रीके साथ द्रोणाचार्यका विवाहमंगल हुआ । उस समय अनेक वाद्योंका' समूह बजने लगा और सुवासिनी स्त्रियाँ गाने लगी। १४६–१४९ ॥ विवाहके अनंतर जिनका काम प्रदीप्त हुआ है, सुरतोत्सव करनेवाले, वे दम्पती प्रेमसे सुरतमें रमने लगे । तदनंतर उन दोनोंको क्रमसे अश्वत्थामा नामक पुत्र हुआ। वह महान् तेजस्वी, विद्वान् , धीर, धर्म धारण करनेवाला, और सन्तोषका सेवक था अथवा व्रतियोंका सेवक था । वह धनुर्विद्यासे संपूर्ण धनुर्धारियोंका प्रभु तथा सुप्रेमसे आनन्दकी प्रेरणा करनेवाला और सर्व लोगोंको उन्नत बनानेवाला था॥ १५०१५२ ॥ किसी समय अतिशय प्रीति करनेवाले, जिनका मन सुशिष्य हुआ ह अर्थात् जो शिष्य
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