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दुर्योधनका यह कपटपूर्ण व्यवहार किसी प्रकारसे विदुरको ज्ञात हो गया। उन्होंने पाण्डवोंको सचेत करके कह दिया कि तुम्हें दुष्टचित्त दुर्योधनादिकका विश्वास नहीं करना चाहिये। यह सुन्दर गृह लाखसे निर्मित है। तुम दिनमें इधर-उधर वनमें रहना और रातको जागते हुए इसमें रहना। इस प्रवादसे सचेत करके विदुर वनमें गये और पाण्डवोंके रक्षणका उपाय सोचने लगे । अन्ततः उन्हें एक उपाय सूझा । उन्होंने अवसर प्राप्त होनेपर महलसे बाहर निकल जाने के लिये एक गुप्त सुरंग बनवा दी।
- लाक्षागृहमें रहते हुए पाण्डवोंका एक वर्ष बीत गया। अब दुर्योधनसे अधिक नहीं रहा गया। उसने कोतवालको बुलाकर और अभीष्ट द्रव्य देनेका लोभ दिखाकर महलमें आग लगानेकी आज्ञा दी। परन्तु साहसी कोतवालने " हे राजन् , आप चाहे मुझे विपुल सम्पत्ति दें, चाहे मेरीही सम्पत्तिका अपहरण करा लें; चाहे मुझपर प्रसन्न हों, चाहे क्रुद्ध होकर मृत्यु दण्ड दें, अथवा दयापूर्वक चाहे मुझे राज्य दें, चाहे मेरी गर्दन कटा दें, किन्तु कपटपूर्वक यह अकार्य मुझसे न हो सकेगा।" यह कहकर उसने दुर्योधनकी उक्त आज्ञाको अस्वीकार कर दिया। उससे क्रुद्ध होकर दुर्योधनने उसे कारागारमें डाल दिया । फिर दुर्योधनने पुरोहित को बुलाकर और वस्त्रभूषणादिसे अलंकृत कर उसे इस कार्यमें नियुक्त किया। तदनुसार उस दुष्ट लोभी ब्राह्मण (सूत्रकण्ठ) ने उक्त गृहमें आग लगा दी और स्वयं कहीं भाग गया।
उस समय पांचों पाण्डव थककर गहरी निद्रामें सो रहे थे, वे जल्दी नहीं जागे । आगकी लपटोंमें घिरकर जब वे किसी प्रकारसे जागृत हुए तो आगकी भयानकता को देखकर व्याकुल होकर बाहिर निकलने का उपाय सोचने लगे। उन्हें पूर्व निर्मापित सुरंगका पता न था । अन्तमें इधर
१ हरिवंश पुराणमें लाक्षागृहदाहका विशेष वृत्तान्त नहीं पाया जाता। वहां केवल इतना मात्र कहा गया है
वसतां शान्तचित्तानां दिनैः कतिपयैरपि । प्रसुप्तानां गृहं तेषां दीपितं धृतराष्ट्रजैः ॥ विबुध्य सहसा मात्रा सत्रा ते पंच पाण्डवाः । सुरंगया विनिःसृत्य गताः क्वाप्यपभीरवः ।। ४५, ५६-५७.
उत्तरपुराणमें द्रुपद-राजाद्वाराकृत द्रौपदीके विवाहप्रस्तावमें यह कह गया हैएतान् सहजशत्रुत्वाद्दुर्योधनमहीपतिः । पाण्डुपुत्रानुपायेन लाक्षालयमवीविशत् ॥
हेतु तं तेऽपि विज्ञाय स्वपुण्यपरिचोदिताः । प्रद्रुता पयसि माजत्याधस्तात्किल्विषं स्वयम् ॥ अपहृत्य सुरंगोपान्तेन देशान्तरं गताः । स्वसाम्बन्धादिदुःखस्य छेद नायंश्च पाण्डवाः ।। उ.पु. ७२,२०१.२०३
दुर्योधनकेद्वारा भेजे गये पुरोचन पुरोहितके वचनको प्रमाण मानकर पाण्डव नासिकसे वारणावत आ गये। वे यहां विशाल प्रासादमें रहने लगे। विदुरके दूत प्रियंवदने दुर्योधनद्वारा कृष्ण चतुर्दशीको पाण्डवोंके जलाये जानेका संकेत कर उन्हें उससे सावधान किया। पुरोचनने कृष्ण चतुर्दशीको भवनमें आग लगा दी। भीमने पुरोचनको मुक्कोंद्वारा मार डाला और आगमें फेंक दिया ( दे. प्र. सूरीकृत पां. पु. ७, १३५-१९३)।
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