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वनमें गये । वहां जाकर उन्होंने भीलको देखा । वह प्रत्यक्षमें द्रोणाचार्यसे परिचित नहीं था। द्रोणाचार्यने उससे पूछा कि तुम कौन हो और तुम्हारे गुरु कौन है ? उसने उत्तर दिया कि मैं भील हूं और मेरे गुरु द्रोणाचार्य हैं। फिर द्रोणाचार्य बोले कि यदि तुझे गुरुका साक्षात्कार हो तो तू क्या करेगा ? उसने कहा कि मैं उनकी दासता करुंगा। तब आचार्यने कहा कि वह द्रोणाचार्य मैं ही हूं। यदि तू वचन देता है तो म तुझसे कुछ याचना करना चाहता हूं। भीलका वचन प्राप्त कर द्रोणाचार्यने उससे अपने दाहिने हाथके अंगूठेको काटकर देनेके लिये कहा। तब आज्ञाप्रतिपालक गुरुभक्त भीलने तुरन्त अपना दाहिना अंगूठा काटकर दे दिया। हाथके अंगुठा रहित होजानेसे अब वह जीवघातको करनेवाले धनुषको ग्रहण नहीं कर सकता था। पापी व्यक्तिको शब्दार्थवधिनी विद्या नहीं देना चाहिये, यह विचार कर द्रोणाचार्यने अर्जुनके लिये उक्त समस्त विद्या अर्पित कर दी।
कपटी दुर्योधनद्वारा लाक्षागृह निर्माण और उसका दाह दुर्योधन आदि स्वभावतः ईर्षालु थे, वे पाण्डवोंकी समृद्धि न देख सकते थे । अब वे स्पष्ट वाक्योंमें कहने लगे कि "हम सौ भाई और पाण्डव केवल पांच हैं, फिरभी वे आधे राज्यको भोग रहे हैं। यह अन्याय है। वस्तुतः राज्यको एकसौ पांच भागोंमें विभक्त कर सौ भागोंका उपभोग हमें और पांच भागोंका उपभोग पाण्डवोंको करना चाहिये था। यही न्यायोचित मार्ग थी।" इस प्रकार पूवमें महात्मा गांगेय आदिकोंके द्वारा किये गये राज्यविभागको दूषित ठहरा कर दुर्योधनादिक युद्ध में उद्युक्त हो गये। इन वचनोंको सुनकर भीमादिक पाण्डवोंको क्रोध उत्पन्न हुआ। परन्तु युधिष्ठिरके निवारण करनेसे वे पूर्ववत् शान्तही रहे।
परन्तु दुर्योधन के हृदयमें शान्ति न थी। उसने उनके मारनेके निमित्त गुप्त रूपसे लाखका सुन्दर महल बनवाया और पितामह गांगेयसे प्रार्थना की कि मैंने यह सर्वांगसुन्दर प्रासाद पाण्डवोंके लिये बनवा दिया है, आप यह उन्हें देदें। वे इसमें स्वतन्त्रतापूर्वक निवास करें और हम लोग अपने गृहमें स्थिर होकर रहें। यह सुनकर सरलचित्त गांगेयने दुर्योधनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। उन्होंने कहा कि यह अच्छाही किया, एक गृहमें रहनेपर विरोध रहता है। अतएव स्वतन्त्रतापूर्वक अलग अलग रहनेसे स्थिर शान्ति रह सकेगी। इसी विचारसे उन्होंने पाण्डवोंको बुलाया और अपना अभिप्राय प्रगट कर उन्हें लाक्षागृहमें भेज दिया। शक्तिशाली पाण्डव दुर्योधनके कपटाचरणसे अनभिज्ञ थे, अतः उन्होंने इसमें कोई विरोध प्रगट नहीं किया।
१ यह कथानक देवप्रभसूरिके पाण्डवचरित्र (३, २७९-३२५ ) में भी प्रायः इसी प्रकारसे पाया जाता है।
२ यह प्रसंग हरिवंशपुराणमेंभी इसी प्रकारसे मिलता-जुलता पाया जाता है। जैसेपार्थप्रतापविज्ञानमात्सर्योपहता अथ । दुर्योधनादयः कर्तुं सन्धिदूषणमुद्यताः।।
पंच कौरवराज्यार्थमेकतः शतमेकतः। भुंजन्ति किमितोऽन्यत्स्यादन्याय्यमिति ते जगुः ॥ ह. पु. ४५, ४९-५०
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