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(१८)
जानेपर अर्जुन हाथमें धनुष लेकर स्थिरचित्त हुआ । कौवा नीचेकी ओर दृष्टिपात करे, एतदर्थ बुद्धिमान् अर्जुनने अपनी जंघाको हस्तताडित किया । उसे सुनकर जैसेही कौवेने नीचेकी और निगाह डाली वैसेही अर्जुनने बाणसे उसकी दाहिनी आंखको वेध दिया। इस दुष्कर कार्यको करते हुए देखकर द्रोणाचार्य व दुर्योधनादिकोंने अर्जुनकी खूब प्रशंसा की।
___ भीलकी गुरुभक्ति किसी समय अर्जुन हाथमें धनुषको लेकर वनमें गया । वहां उसने सिंहके समान उन्नत एक कुत्तेको देखा, उसका मुख बाणके प्रहारसे संरुद्ध था । उसे देखकर अर्जुन विचार करने लगा कि इसका मुख बाणोंसे किसके द्वारा वेधा गया है। यह कार्य शब्दवेधके जानकारको छोडकर दूसरे किसीके द्वारा नहीं किया जा सकता। इधर मैंने यहभी सुना है कि गुरु द्रोणाचार्यके अतिरिक्त दूसरा कोई व्यक्ति शब्दवेधको नहीं जानता । शब्दवेधकी शिक्षा प्राप्त करने के लिये मैं उनके समीपमें रहता हूं। उन्होंने प्रसन्न होकर वह विद्या केवल मुझेही दी है, अन्य किसीभी शिष्यको नहीं दी। जब यह कुत्ता भोंक रहा होगा,तभी लक्ष्य करके उसका मुख बाणोंसे भर दिया गया है। परन्तु वह किस शब्दवेधीके द्वारा भरा गया है, यह समझमें नहीं आता। इस प्रकार विचार करता हुआ वह आश्चर्यसे वनमें घूमने लगा। उसने एक जगह हाथमें कुत्तेको पकडे हुए और कंधेपर धनुषको धारण करनेवाले एक भयानक भीलको देखा । उसे देखकर अर्जुनने पूछा कि मित्र ! तुम कौन हो, कहां रहते हो और कौनसी विद्याको धारण करनेवाले हो । उसने उत्तर दिया कि मैं वनवासी भील हूं, धनुर्विद्यामें निपुण और शुद्ध शब्दवेधका जानकार हूं । अर्जुनने फिर पूछा कि हे भिल्लराज ! यह विद्या तुमने कहांसे पायी और तुम्हारा गुरु कौन है ? भीलने कहा कि मेरे गुरु द्रोणाचार्य हैं, उन्हीके प्रसादसे यह विद्या मुझे प्राप्त हुई है। उनके सिवा अन्य कोई इस विद्याका जानकार नहीं है । अर्जुनने यह सोचकर कि गुरु द्रोणाचार्यसे इसका संयोग होना शक्य नहीं है, पुनः उससे प्रश्न किया कि तुमने द्रोणाचार्यको कहां देखा । तब भीलने एक स्तूपको दिखा कर कहा कि ये है वे मेरे गुरु द्रोणाचार्य । इस पवित्र स्तूपमें मैंने गुरुकी कल्पना की है, गुरुत्व बुद्धिसे मैं इसको बार बार प्रणाम करता हूं। इसीके प्रसादसे मुझे शब्दवेध विद्या प्राप्त हुई है । यह सुनकर अर्जुनने उसकी गुरुभक्तिकी बहुत प्रशंसा की और वह वापिस हस्तिनापुर आ गया।
यहां आकर अर्जुनने उक्त घटनासे गुरु द्रोणाचार्यको परिचित कराया । साथही यहभी निवेदन किया कि हे आचार्य ! वह निर्दय भील निरपराध जीवोंका घात करता है । यह सुनकर द्रोणाचार्यके मनमें दुख हुआ। वे इस अनर्थको रोकनेके लिये मायावेषमें अर्जुनके साथ उस १ सोऽवदद्भद्र ! पल्लीन्दोहिरण्यधनुषः सुतः । एकलव्याभिधानोऽस्मि पुलिन्दकुलसम्भवः ।।
शस्त्रतत्त्वाम्बुधिद्रोणी द्रोणाचार्यश्च मे गुरुः । श्रूयते धन्विनां धुर्यः शिष्यो यस्य धनञ्जयः ।। दे. प्र. पां. च. ३, २८४-८५.
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