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________________ (१७) दुर्योधनादिकी पाण्डवोंसे ईर्षा इधर दुर्योधन आदिक सब भाई पाण्डवोंके राज्यको न देख सकनेसे उनके विरोधी बन गये । यह विरोध उत्तरोत्तर बढ़ताही गया। तब गांगेय आदि महापुरुषोंने पारस्परिक वैरभावको दूर कर देनेके लिये राज्यको विभक्त कर दोनोंके लिये आधा-आधा बांट दिया । परन्तु फिरभी वह वैरभाव मिट नहीं सका । कौरव स्वभावतः वचनोंसे मीठे, किन्तु हृदयसे दुष्ट थे। वे क्रोधसे सब पाण्डवोंको मार डालनेके प्रयत्नमें रहने लगे । अन्तरङ्गमें दुष्टभावको धारण कर वे बाह्य स्नेहसे पाण्डवोंके साथ क्रीडायें करने लगे । इन क्रीड़ाओंमें कौरवोंने अनेकबार भीमको मारनेका दुष्ट प्रयत्न किया, किन्तु वे पुण्योदयसे भीमका कुछ बिगाड नहीं कर सके । यहां तककी एक बार उन्होंने भीमके लिये भोजनके साथ तत्काल प्राणोंके हरण करनेवाला विषभी दिलाया, किन्तु दैवयोगसे वह महाविषभी उसके लिये अमृततुल्य हो गया। द्रोणाचार्यद्वारा शिष्य-परीक्षण 'द्रोणाचार्यने कौरवों और पाण्डवोंको धनुवेदकी उच्च शिक्षा दी थी। एक बार उन्होंने सब शिष्योंसे कहा कि धनुर्वेदके विषयमें मैं जो कुछभी कहता हूं, तदनुसार आचरण करो। समर्थ अर्जुनने उनके वचनोंपर दृढ़ विश्वास प्रगट किया। इसपर द्रोणाचार्यने प्रसन्न हो उसे वरदान दिया और कहा कि शुद्ध धनुर्विद्यासे मैं तुझे अपने समान करूंगा। इस प्रकार अर्जुनने धनुर्वेद में अतिशय दक्षता प्राप्त की। ____ किसी समय गुरु द्रोणाचार्य पाण्डवों व कौरवोंको धनुर्वेदकी शिक्षा देने के लिये उनको वनमें ले गये । वहां उन्होंने एक उन्नत वृक्षकी शाखापर बैठे हुए काकको देखकर शिष्योंसे कहा कि, जो इस काककी दक्षिण आंखको लक्ष्य कर वेधित करेगा वह धनुर्धर धनुर्वेदके जानकारोंमें श्रेष्ठ समझा जावेगा। यह सुनकर दुर्योधनादिक सब कौरव लक्ष्यवेधको अशक्य जानकर चुपचाप स्थित रहे । कौरव-पाण्डवोंको चुपचाप स्थित देखकर लक्ष्यवेधके जानकार द्रोणाचार्य गम्भीर वाणीसे बोले कि उस पक्षीकी दाहिनी आंखका वेधन मैंही करता हूं। इस प्रकार कहकर वे धनुषपर बाण रखकर लक्ष्यवेधके लिये उद्यत हुए। तब अर्जुनने उसको नमस्कार कर प्रार्थना की कि आप लक्ष्यवेधके लिये सर्वथा समर्थ हैं । परन्तु मेरे जैसे शिष्यके रहते हुए ऐसा कार्य करना आपको योग्य नहीं है । अत एव हे पूज्य गुरुदेव ! इसके लिये आप मुझे आज्ञा दें। गुरुके द्वारा आज्ञा दी १ द्रोणाचार्यकी वंशपरम्परा- भार्गवाचार्यवंशोऽपि शृणु श्रेणिक वर्ण्यते । द्रोणाचार्यस्य विख्याता शिष्याचार्यपरम्परा ॥ आत्रेयः प्रथमस्तत्र तच्छिष्यः कौंडिनिः सुतः । तस्याभूदमरावतः सितस्तस्यापि नन्दनः।। वामदेवः सुतस्तस्य तस्यापि च कपिष्टकः । जगत्स्थामा सरवरस्तस्य शिष्यः शरासनः ॥ तस्माद्रावण इत्यासी त्तस्य विद्रावणः सुतः । विद्रावणसुतो द्रोणः सर्वभार्गववन्दितः ॥ अश्विन्यामभवत्तस्मादश्वत्थामा धनुर्धरः । रणे यस्य प्रतिस्पर्धी पार्थ एव धनुर्धरः ॥ ह. पु. ४५, ४४-४८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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