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वाणी आविर्भूत हुई । उसे सुनकर पाण्डु राजा संसार, शरीर और भोगोंसे विरक्त हो गये। उन्होंने अनेक प्रकारसे वैराग्यका चिन्तन किया। भाग्यवश इसी समय उन्हें अकस्मात् सुव्रत मुनिका दर्शन हुआ। उनसे धर्मश्रवणकाभी लाभ हुआ। दिव्य ज्ञानसे मुनिने पाण्डु राजाकी आयु तेरह दिनकी शेष बतलाई । बस फिर क्या था, वे शीघ्रतासे घर वापिस आये। उन्होंने मुनिके द्वारा कहा गया सब वृत्तान्त धृतराष्ट्र आदिसे कह दिया। इससे सभीको दुख हुआ। पाण्डुने भोगोंकी नश्वरता दिखलाकर सबको आश्वासन दिया। पश्चात् पांचो पुत्रोंको बुलाकर उन्हें राज्य दे धृतराष्ट्रके अधीन किया । फिर उन्होंने गंगाके किनारे जाकर मद्रीके साथ संन्यास धारण कर लिया । दोनोंने यावजीवन आहारादिका परित्याग करके चार आराधनाओंका आराधन करते हुए शरीरको छोड़ दिया। उन्हें सौधर्भ स्वर्ग में देवपर्याय प्राप्त हुई ।
किसी समय धृतराष्ट्र राजा वनमें गये थे। वहां उन्हें एक स्फटिकमणिमय शिलाके ऊपर स्थित मुनिराजका दर्शन हुआ । उनसे धर्मश्रवण कर उन्होंने पूछा कि “ स्वामिन् ! कौरव राज्यके भोक्ता मेरे पुत्र दुर्योधन आदि होंगे या पाण्डुपुत्र ?" उत्तरमें सुव्रत मुनिने कहा कि " हे राजन् ! राज्यके निमित्तसे तेरे पुत्र दुर्योधन आदि और पाण्डवोंके बीच विरोध उत्पन्न होगा। इसी लिये कुरुक्षेत्रमें महायुद्ध होगा। उसमें तेरे पुत्र मारे जावेंगे और पाण्डव राज्यमें प्रतिष्ठित होंगे।" यह सुनकर चिन्ताको प्राप्त हुए धृतराष्ट्र हस्तिनापुर वापिस आये । वे विचार करने लगे कि “ देखो ! मेरे पुत्र दुर्योधन आदि अतिशय बुद्धिमान् , बलिष्ठ एवं युद्धमें अजेय हैं । फिरभी वे राज्यको नष्ट करके महायुद्ध में मारे जावेंगे । इस समुन्नत राज्यको धिक्कार है, तथा राज्यके लिये युद्ध में मृत्युको प्राप्त होनेवाले मेरे उन पुत्रोंकोभी धिक्कार है, इत्यादि । ” इस प्रकार विरक्त होकर उन्होंने गांगेयको बुलाकर अपना अभिप्राय प्रगट कर उनके तथा द्रोणाचार्यके समक्षमें अपने पुत्रों व पाण्डवोंको राज्य दे दिया और स्वयं माता सुभद्राके साथ दीक्षा लेली ।
१ चम्पूभारतमें बतलाया गया है कि पाण्डु राजा मृगयार्थ वनमें गये। वहां उन्होंने क्रीडा करते हुए हरिम-हरिणी युगलको देखा और उनमेंसे हरिणको तीक्ष्ण बाणके द्वारा मार डाला । यह हरिणयुगल वास्तविक नहीं था, किन्तु इस आकारमें किंदम नामक ऋषि और उनकी पत्नी थी। बाणसे अभिहत होकर उक्त ऋषिने क्रोधित होकर पाण्डको यह शाप दिया कि जैसे " पत्नीके साथ रतिक्रीडा करते हुए मुझे तूने मारा है वैसेही रतिक्रीडार्थ पत्नीके उन्मुख होनेपर तू भी मृत्युको प्राप्त होगा।" इस ऋषिशापसे सन्तप्त होकर पाण्डुने चतुरङ्ग बल और सप्ताङ्ग राज्यको छोड़कर तपको स्वीकार किया। (देखिये निर्णयसागरसे मुद्रित भा. चंपु. पृष्ठ १५-१६ 'तत्र तावत् ' इत्यादि)
२ देवप्रभसूरिकृत पाण्डवचरित्रके अनुसार धृतराष्ट्रने स्वयं राज्य स्वीकार नहीं किया था, किन्तु पाण्डको राजा बनाया था। यथा
धृतराष्ट्रमभाषिष्ट भीष्मो मधुरया गिरा । वत्स ! राज्यमिदानीं त्वां ज्यायांसमुपतिष्ठताम् ॥ स जगाद न योग्योऽस्मि राज्यस्याहं ध्रुवं ततः । पाण्डुमभ्येति राज्यश्रीर्दिनश्रीरिव भास्करम् ॥
१,३८३-८४.
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