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दशमं पर्व दुर्योधनादयो धीरा राज्यभार इत्यपि । कृत्वा राज्यस्य चोच्छित्ति मरिष्यन्ति महाहवे ॥५ धिगिदं राज्यमुत्तुङ्ग धिक्सुतान्भाविसन्मृतीन् । धिग्जीवितं ममायापि पराकूतविसारिणः॥६ राज्यं रजोनिभं प्राज्यं विषया विषसंनिभाः। चञ्चला चपलेवाश्विन्दिरा च मन्दिरं शुचः ॥ जाया जीवनहारिण्य आत्मजा निगडप्रभाः। काराघटनसंघट्टा घोटका विकटाः खलु ॥ ८ गजा जन्मजराकारा रथाश्चानर्थकारिणः । पदातयो विपत्तीनां पचनं संपदापहाः ॥ ९ गोत्रिणः शत्रुसंकाशाः सचिवाः शोकशासनम् । मित्राणि चित्ररूपाणि स्वकार्यकरणानि च ॥ इत्याध्याय धरित्रीशो विरक्तो भवभोगतः। समाहूय च गाङ्गेयं स्वाकूतमगदीदिति ॥११ गाङ्गेय जीवितं गन्त गगने चन्द्रबिम्बवत् । अतः सुताय संदेयं हेयं राज्यं मया पुनः॥१२ इत्युक्त्वा स स्वपुत्रेभ्यः पाण्डवेभ्यश्च सत्वरम् । गाङ्गेयद्रोणसांनिध्ये प्रददौराज्यसद्धरम् ॥१३ जनन्या सह भूपालो वनमित्वा महागुरुम् । नत्वा निलच्य सत्केशान्याबाजीद्विनयोधतः॥१४ चचार चरणं चारु विचारचरणाश्चरम् । चेतनं चिन्तयश्चित्ते निश्चलवाचलोपमः ॥ १५
वार्यशाली, धैर्य और गांभीर्य गुणोंके धारक, जिनके चरणोंकी लोक पूजा करते हैं, ऐसे धीर
और राज्य के स्वामी होकर भी राज्य का नाश करके महायुद्ध में मरेंगे । यह भावी परिस्थिति नितान्त कष्टद है ॥ ३-५॥ इस वैभवशाली विशाली राज्यको धिक्कार हो, जिन का भविष्यकालमें मरण होनेवाला है ऐसे मेरे पुत्रोंको भी धिक्कार हो तथा दूसरों के विचारोंका अनुसरण करनेवाले मुझे भी धिक्कार हो॥ ६॥ यह उत्तम राज्य धूल के समान तुच्छ है, पंचेन्द्रियोंके विषय विषतुल्य हैं, चंचल बिजली के समान लक्ष्मी शोकका मन्दिर है, स्त्रियाँ जीवन हरण करनेवाली,
और पुत्र बेडी के समान हैं । निश्चयसे विशाल घोडे कैदखाने के बंधन समान हैं । हाथी जन्म और जराके आकार हैं । रथ अनर्थ के जनक हैं और प्यादोंके समूह सम्पदाके विनाशक और आपदाओंके घर हैं । अपने गोत्रज लोक शत्रुके समान हैं और अमात्यगण शोकको देनेवाले हैं। भिन्न भिन्न स्वभाव के धारक मित्र अपने कार्य करनेवाले अर्थात् स्वार्थी है । ऐसा मनमें विचार कर पृथ्वीपति धृतराष्ट्र संसार और भोगोंसे विरक्त हुआ। तथा भीष्म पितामह को बुलाकर अपना मनोऽभिप्राय इस प्रकार कहने लगा ॥ ७-११ ॥ हे गांगेय-भीष्मपितामह, यह मनुष्यका जीवित आकाशमें गमनशील चन्द्रमाके समान है । इसलिये पुत्रको राज्य देकर मैं इसे छोडता हूं। ऐसा बोलकर गांगेय और द्रोणके सान्निध्यमें दुर्योधनादिक पुत्रोंको और पाण्डवों को तत्काल बुलाकर धृतराष्ट्रने उनको राज्यका भार अर्पण किया। इसके अनंतर अपनी सुभद्रा माताके साथ वन जाकर विनयशील राजाने महागुरुको वन्दन किया । और केशलोच कर दीक्षा ग्रहण की।आगम के विचार से अविरुद्ध चारित्रके धारक धृतराष्ट्र मुनि सुंदर-निरतिचार चारित्र पालने लगे । पर्वत के समान स्थिर होकर वे मनमें अपने चैतन्यका चिन्तन करने लगे । धृतराष्ट्र मुनीश्वर आगमार्थ
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