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पाण्डवपुराणम् आगमार्थ पपाठाशु संगम सह साधुभिः । जगाम सुमतिः साधुधृतराष्ट्र मुनीश्वरः ॥ १६ एतस्मिन्नन्तरे राज्यं धृतराष्ट्रसुतैः समम् । युधिष्ठिराय योधाय श्रीगाङ्गेयः समार्पयत् ॥१७ धर्मपुत्रः सुधर्माणं लोकं कुर्वन् रराज च । पालयन्परमां पृथ्वी न्यायेन नयकोविदः ॥ १८ यस्मिन्राज्यं प्रकुर्वाणे चौर इत्यक्षरद्वयम् । शास्त्रेऽश्रावि न कुत्रापि पत्तने नीति स्फुटम् ॥ भयं न विदितं लोकैयस्मिन्पाति धरातलम् । बिभ्यत्यत्र युवानो हि केवलं कामिनीक्रुधः॥२० यस्मिन्राज्ये न हरणं लक्ष्मीणां लक्षितात्मनाम् । हर्ता चेत्केवलो वायुः सौगन्ध्यस्य परस्थितेः ॥ नान्योन्यमारणं यत्र विद्यते श्रीयुधिष्ठिरे । मारकस्तु कदाचिचेत् समवर्ती विवृत्तिमान् ॥२२ ददौ दानं सुपात्रेभ्यो धर्मपुत्रः पवित्रवाक् । विचित्राणि च कार्याणि परेषां विदधाति च ॥ समर्त्यः सर्वलोकानां वराचा श्रीजिनेशिनः । कुरुते विजयोद्युक्तो वृषार्थ स वृषो नृपः ॥२४ षड्वैरिविजयं कुर्वन्कृपासागरपारगः । परमार्थ विजानानः क्षमावान्योगिवद्धभौ ॥ २५ अथ द्रोणस्तु सर्वेषां पाण्डवानां बलात्मनाम् । धृतराष्ट्रसुतानां च बभूव गुरुसत्तमः ॥२६
का पठन करने लगे, वे साधुओंके साथ हमेशा रहते थे । उनकी बुद्धि निर्मल थी और वे रत्नत्रय को साधनेवाले साधु थे ।। १२-१६ ॥
[ भीष्मने कौरवपाण्डवों को राज्य दिया ] इसके अनन्तर श्रीगांगेयने धृतराष्ट्र सुतदुर्योधनादिकों के साथ योधा श्रीयुधिष्ठिर को राज्य अर्पण किया । नीतिनिपुण धर्मराज न्यायसे पृथ्वीका पालन करने लगे । वे लोगों को धर्म में तत्पर कर शोभने लगे । उनके राज्यमें ' चौर' ऐसा दो अक्षरों का शब्द शास्त्र में ही सुना जाता था । किसी भी नगर तथा देशमें 'चौर' बिलकुल नहीं थे। धर्मराज पृथ्वी का पालन करते थे उस समय तरुण पुरुषोंको कामिनीके कोपसे ही केवल भय मालूम होता था । लोगोको 'भय' क्या चीज है यह भी मालूम नहीं था । धर्मराजा के राज्यमें जिसका स्वरूप जाना गया है ऐसी लक्ष्मी को कोई हरण नहीं करता था । परंतु दूसरे के सुगंधित पदार्थ के सुगंध को वायुही हर लेता था । युधिष्ठिर राज्य पालन करते थे उस समय अन्योन्यका ' मारण' नहीं था । एक दूसरे को नहीं मारता था । परन्तु यदि कोई कदाचित् मारता था तो यम ही परिवर्तनशील होनेसे लोगोंको क्वचित् कदाचित् मारता था ॥१७-२२।। पवित्र वचनवाला धर्मराज हमेशा सुपात्रोंका दान देता था । और अन्यलोगोंके अनेक कार्य करता था। सर्व लोगों को मान्य धर्मराज दररोज श्रीजिनेश्वर की उत्तम पूजा करता था । विजय पानेमें उद्यमशील तथा धर्मतत्पर धर्मराजा धर्म के लिये धर्म सेवन करता था । काम, क्रोध, इत्यादि अन्तरंग छह वैरियोंपर विजय पानेवाला, दयासमुद्रके दूसरे किनारेपर पहुंचा हुआ, परमार्थज्ञाता युधिष्ठिर क्षमाधारक योगिक समान दीखता था, योगीभी क्षमावान, दयालु, आत्मस्वरूप जाननेवाले तथा कामादिशत्रुओंको परास्त करनेवाले होते हैं ॥ २३-२५ ॥ बलशाली सर्व पाण्डवोंके तथा धृत
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