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पाण्डवपुराणम्
झुनीन्द्रं महितं मान्यैः संमसंसर्गदूरगम् । सोऽनमद्वीक्ष्य शुद्धं वा सिद्धं सिद्धशिलोपरि ।। दत्ताशिषा मुनीन्द्रेण नृपोऽवादि स्थिरस्थितः । राजन् संसारकान्तारे भ्रमतां न सुखं कचित् । Teat Goकल्लोला लीयन्ते संभवन्ति च । म्रियन्ते च तथा जीवा जायन्ते जगतीतले ॥ कचित्सौख्यं क्वचिद्दुःखं बोबुध्यन्ते विबुद्धयः । संसारे सर्वदा दुःखं विद्धि विद्वन्महीपते ॥ भवे धावन्ति सजीवाः साताय सततोद्यताः । तन्नाप्नुवन्ति तोयाय मृगा वा मृगतृष्णया || बन्धो न बन्धुरं किंचिद्विद्धि संपद्धरादिकम् । योयुध्यन्ते तदर्थ हि बुधा अपि मुधोद्यताः ॥ स्पर्शनेन्द्रियसंलुब्धाः क्षुब्धा बोधविवर्जिताः । न लभन्ते परं शर्म मातङ्गा इव सद्वने ॥२०५ रसनेन्द्रियलाम्पट्याद्रसास्वादनतत्पराः । विपत्तिं यान्ति जीवा वा बडिशेन यथा झषाः ॥ प्राणेन गन्धमाघ्राय विदग्धा इव बन्धुरम् । इय्रतीव मृर्ति मत्ता द्विरेफाः सरसीरुहे ।। २०७ प्रतीपदर्शिनीरूपरञ्जिताश्चक्षुषा नराः । दुःखायन्ते यथा वह्नौ पतङ्गाः पतनोन्मुखाः ।। २०८
आदरणीय, परिप्रहोंके संसर्गसे रहित, सिद्धशिलाके ऊपर बैठे हुए शुद्ध सिद्धके समान मुनिको देखकर धृतराष्ट्र राजाने उनको वन्दन किया ।। १९५-१९९ ॥
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[ धृतराष्ट्रको मुनिराजका उपदेश ] स्थिर बैठे हुए राजाको मुनीन्द्रने ' धर्मवृद्धिरस्तु ' ऐसा आशीर्वाद दिया और वे इस प्रकार कहने लगे 'हे राजन् इस संसारवन में भ्रमण करनेवाले प्राणियोंको कहांभी सुख नहीं मिलता है । जैसे समुद्रमें पानीके तरङ्ग नष्ट होते हैं और उत्पन्न होते हैं वैसे संसारमें जीव मरते हैं और जन्म लेते हैं। मूर्ख लोग कहीं सुख और कहीं दुःख मानते है; परंतु संसार में सदैव दुःखही है ऐसा हे राजन्, तूं समझ । हरिण जैसे मृगतृष्णाको जल समझकर उसके पीछे दौड़ते हैं परंतु उनको जैसा पानी नहीं मिलता वैसे इस संसार में सुख के लिये जीव नित्य प्रयत्न करते हुए भ्रमण करते हैं परंतु सच्चा सुख उनको मिलताही नहीं है | २००२०३॥ हे बंधो, संपत्ति, पृथ्वी आदिक कोई भी पदार्थ सुंदर - हितकर नहीं है क्योंकि विद्वान लोग भी प्रयत्न करते हुए उनके लिये व्यर्थही लडते हैं । जैसे वनमें उन्मत्त हाथी स्पर्शनेन्द्रियजन्य सुखमें लुब्ध होकर विवेकरहित होते हैं उनको सच्चा सुख नहीं मिलता है, वैसे बोधरहित मनुष्य क्षुब्ध होकर स्पर्शनेन्द्रियमें लुब्ध होते हैं परन्तु उनको उत्तम सुखकी प्राप्ति नहीं होती है । जैसे मत्स्य रसनेन्द्रिय-लम्पट होकर रसके आस्वादन करनेमें तत्पर होते हैं और मांस लगे हुए कासे मरणको प्राप्त होते हैं, वैसेही मनुष्य भी जिह्वेन्द्रियकी लंपटतासे नानाप्रकार के रसोंके आखादनमें तल्लीन हो जाते हैं और उससे संकटमें फँसकर मर जाते हैं। जैसे मत्त भौरे नाकसे सुंदर गंध सूंघकर कमलमें अटक जाते हैं और मरते हैं वैसे विद्वान लोगभी नाकसे सुगंध का सेवन कर उसमें आसक्त होकर मरण पाते हैं । जैसे पतङ्ग अग्निमें रूपलुब्ध होकर गिरते हुए दुःखको प्राप्त होते हैं, वैसे आँखोंकेद्वारा स्त्रियोंके रूपमें लुब्ध होकर पुरुष दुःखी होते हैं। जैसे हरिण कर्णसे
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