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नवमं पर्व धृतराष्ट्रो महाराष्ट्रो राष्ट्र राष्ट्रविरोधिनः । निर्वासयन्प्रकुर्वाणो राज्यं रेजे महेन्द्रवत् ॥१८७ गान्धायाँ गन्धसंलुब्धो मधुव्रत इवाभवत् । धृतराष्ट्रो रतो वल्ल्यां सुमनोनिचयप्रियः ॥१८८ सुतानां शिक्षयामास स शतं क्षितिपालकः । राजनीति सुनीतिं च प्रीति पौरजनैः सह ॥१८९ प्रचण्डाखण्डकोदण्डपटुपाण्डित्यपण्डिताः । पाण्डवाः संकटातीता विकटास्तत्र रेजिरे ॥१९० गाङ्गेयसंगताः सद्यो गाङ्गेयसमसत्प्रभाः । अगं नगं सुगां चैव पालयन्ति स्म पाण्डवाः ॥ द्रोणं विद्रावणे दक्षं विपक्षाणां सुपक्षकाः । धनुर्विद्यार्थमाभेजुः पाण्डवाः पञ्च पावनाः ॥१९२ कदाचिद्धृतराष्ट्रोऽपि वनं गन्तुमियाय च । दुन्दुभीनां निनादेन भासयनिखिला दिशः॥ विपिने विपिनाधीशैः संस्तुतः कौरवाग्रणीः । प्राभृतैः फलपुष्पाणां सेवितः सुखसिद्धये ॥१९४ अशोकानोकहारव्यं च शोकशङ्कानिवारकम् । लुलोके लोकपालानामधीशो लोकपालवत् ॥ तत्र स स्फाटिकी स्पष्टां निर्मलां मुकुरुन्दवत् । शिलामैक्षिष्ट राजेशो वरां सिद्धशिलामिव ॥ यदन्त सितानेकानोकहाभोग आबभौ । स भित्तौ लिखितश्चित्रं चित्रव्यूह इवामलः ॥१९७ तत्रोपरिस्थितं धीरं निर्मलं गुणसंगमम् । विपुलं बोधसंपन्नं विशुद्धं चिन्मयं परम् ॥१९८
शोक दूर किया। तब कौरववंशको उन्नत बनानेवाले उन विद्वानोंने नगरमें प्रवेश किया ॥१८४१८६ ।। बडे राष्ट्रका अधिपति धृतराष्ट्र राजाने राष्ट्रमें जो राष्ट्र के विरोधी थे उनको देशसे निकाला और राज्य करनेवाला वह महेन्द्रके समान शोभने लगा। पुष्पोंके समूह जिसको प्रिय लगते हैं ऐसा भौरा गंधलुब्ध होकर जैसे वल्लीमें तल्लीन होता है वैसे विद्वान लोगोंके समूहको प्रिय धृतराष्ट्र राजा गांधारीमें अतिशय आसक्त हुआ ॥ १८७-१८८ ॥ राजाने अपने सौ पुत्रोंको राजनीति, सुनीति और प्रजाजनोंमें प्रीति करनेका शिक्षण दिया। प्रचण्ड और अखण्ड धनुष्यके पूर्ण पांडित्यमें जो निपुण थे ऐसे विशाल पाण्डव संकटरहित होकर उस नगरीमें शोभने लगे। नूतन तपाये हुए सोनेके समान सुंदर कान्तिवाले वे पाण्डव गांगेयके-भीष्मके साथ रहते हुए वृक्ष, पर्वत और उत्तम पृथ्वीको पालने लगे। शत्रुओंको भगानेमें दक्ष द्रोणाचार्यका आश्रय सज्जनपक्षके पवित्र पांच पाण्डवोंने धनुर्विद्याके लिये लिया था ॥१८९-१९२॥ किसी समय दुन्दुभियोंके शब्दसे सर्व दिशायें प्रतिध्वनियुक्त करनेवाला धृतराष्ट्र वनको जानेके लिये निकला। जंगलमें जंगलके अधिपतियोंने कौरवोंके अगुआ धृतराष्ट्रकी स्तुति की और सुखप्राप्तिके लिये फलपुष्पोंकी भेट उन्होंने राजाके आगे रख दी ॥ १९३-१९४ ॥ लोकपालोंके अधीश राजा धृतराष्ट्रने शोककी भीति नष्ट करनेवाले अशोक वृक्षको लोकपालके समान देखा। उस बगीचेमें निर्मल दर्पणके समान स्वच्छ स्फटिकशिला, जो कि उत्तम सिद्धशिलाके समान थी, राजाने देखी। उस स्फटिकशिलामें अनेक वृक्षोंका विस्तार शोभता था। मानो भित्तिमें लिखा हुआ निर्मल चित्रसमूहही है। उस स्फटिकशिलाके ऊपर बैठे हुए धीर निर्मल गुणी, विशालज्ञान-पूर्ण, विशुद्ध उत्तम चैतन्यमय, मान्य लोगोंद्वारा
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