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पाण्डवपुराणम् यत्र तत्र गता नाथ न लेभे रतिमुत्तमाम् । प्रसीद पुरुषश्रेष्ठैकदा च देहि सद्वचः ॥१७३ त्वां विना वल्भने वाञ्छा मदीयापि न विद्यते । राज्यं प्राज्यं विमुच्याशु किं कृतं त्वयका विभो । दुरवस्थेशी केन प्रापिताहं महाप्रिय । पवित्रास्तव पुत्रास्ते किं करिष्यन्ति त्वां विना ॥१७५ निराधारा धराधीश धारयामि कथं धृतिम् । वल्ली विटपिनं वेगाद्विहायास्ते कथं विभो॥१७६ शुभाकर कथं शोमां लभेय वल्लभाधुना । त्वां विना च यथा नाथ निशानाथाहते तमी ॥१७७ विरसां त्वां विना देव मानयन्ति न जातुचित् । जना मां सुरसैमुक्तां सरसीमिव सद्रसाम् ।। विनेशेन वरा नारी रतिं न लभते क्वचित् । मणिना हि विनिमुक्ता यथा हारलता विभो ॥ एवं तस्यां रुदन्त्यां हि रुरुदुः कौरवा नृपाः । युधिष्ठिरादयः क्षिप्रमिति बाष्पाविलाननाः॥ प्राज्यं राज्यं त्वया मुक्तं राजते न नराधिप । लवणेन विना भुक्तं भोज्यं स्वादकरं न हि ॥ त्वया मुक्ता वयं देव कथं शोभा लभामहे । दन्तावला यथा दन्तमुक्ता मान्याः कथं नृपः ॥ त्वया भुक्तमिदं राज्यं न शोभाहेतवे भवेत् । यथा गन्धविनिर्मुक्त कुसुमं सुषमाहरम् ॥१८३ एवं शुचं प्रकुर्वाणान्वारयन्ति स्म तान्बुधाः । इति वाक्येन शोको हि सर्वेषां दुःखदायकः॥ तपास्था योगिनो भव्या न शोच्या मृतिमागताः। प्रेतां गतिं गताः सन्तो यतः सद्गतिभाजिनः । वारयित्वेति ते शोकं सर्वे धर्मसुतादिजम् । कुर्वाणाः कौरवं वंशं प्रोन्नतं विविशुः पुरम् ॥१८६
प्रेम होकर भी मेरी ऐसी दुर्दशा किसने की है ? आपके बिना आपके पवित्राचारवाले पुत्र क्या कर सकेंगे ? हे नाथ, मैं निराधार हुई हूं। ऐसी अवस्थामें मैं कैसे धैर्य धारण करूंगी। नाथ, लता वृक्षको छोडकर कैसी रह सकती है? ॥ १६५-१७६॥ हे वल्लभ, हे शुभाकर, आपके विना मुझे कैसी शोभा प्राप्त होगी? क्या चन्द्र के विना रात्री शोभती है ? आपके बिना मैं विरसा-शृंगार रहित हुई हूं। मुझे अब कौन मानेगा? शंगारादिरसोंसे रहित मुझे रसरहित सरसीके समान कौन मानेगा ? हे विभो नायकमणिके बिना जैसे हार शोभा नहीं पाता है, वैसेही पतिके बिना उत्तम स्त्री कहांभी रममाण न होगी ॥ १७७-१७९ ॥ इसप्रकार विलाप कर कुन्ती जब रोने लगी तब सब कौरव राजाभी रोने लगे । युधिष्ठिरादिकोंके मुख अश्रुओंसे भीग गये । हे नरपते, आपसे छोडा गया यह राज्य शोभा नहीं पाता है। नमकके विना खाया जानेवाला भोजन रुचिकर नहीं होता है। हे देव, आपके बिना हम शोभाको कैसे प्राप्त हो सकते हैं ? दान्तोंसे रहित हाथी राजाओंको कैसे मान्य होंगे ? हे राजन् आपका छोडा हुआ यह राज्य शोभाका कारण नहीं होगा अर्थात् जैसे गंधरहित पुष्प शोभारहित होता है वैसे आपके बिना यह राज्य शोभाहीन है ॥ १८०-१८३ ।। इस प्रकार शोक करनेवाले कौरवोंको समझाकर विद्वानोंने शोकरहित किया। उन्होंने कहा-- जो तपमें स्थिर रहते हैं ऐसे योगियोंके मरनेपर शोक नहीं करना चाहिये क्यों कि परलोककी गतिको गये हुए वे सत्पुरुष सद्गतिहीको प्राप्त होते हैं। इस प्रकार बोलकर विद्वानोंने धर्मसुतादिक-युधिष्ठिरादिकोंका
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