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________________ नवमं पर्व १८३ लुञ्चयन्ती निजान्केशांत्रोटयन्ती निजोरसः । मणिमुक्ताफलोपेतं हारं हाटकसंभवम् ॥ १६३ कङ्कणं करघातेन कृन्तन्ती करतः शुचा । विललापेति दुःखार्ता कर्तव्यरहिता च सा ॥१६४ हा नाथ हा प्रियाधार हा कौरवनभोंशुमन् । हा हतः सर्वदुःखानां हा कर्तः शुभकर्मणाम् ॥१६५ हा वीरवक्त्रशुभ्रांश सर्वश्रोतृसुभावन । कुण्डलोद्भासिसत्कर्णाभ्यर्णस्वर्णसमद्युते ॥ १६६ स्वरसंक्षिप्तसद्वीणानाद पाथोदनादभृत् | हा कम्बुकण्ठ सत्कण्ठसमुत्कण्ठितकोकिल ॥ १६७ विकुण्ठीकृतदुर्वारवैर्युत्कण्ठ सुमण्डन । विस्तीर्णवक्षसा व्याप्तजगत्कीर्तनकीर्तिभृत् ॥१६८ दुःखिनीं मां विहायाशु हारिणीं क्व गतो भवान् । दास्यते त्वां विहायाद्य मह्यं को मानमुत्तमम् ॥ त्वया विनाद्य सर्वत्र शून्यं वेश्म न शोभते । अहं कर्तव्यतामूढा गूढदुःखा त्वया विना || अद्य मे मस्तकेऽपतन्नभो निर्भिन्नसंभ्रमम् । अद्याङ्गुष्ठे स दुष्टेऽत्र मुक्तो वह्निः सुदाहकः ।। १७१ करवाणि किमत्राहो त्वद्यतेऽमृतवत्सल । ज्वलते निखिलो देहो मदीयो मदनाहतः ॥ १७२ 1 तोड़ती हुई तथा अपने वक्षःस्थलका रत्न और मोति जिसमें गूँथे हैं ऐसा सुवर्णका हार तोडकर विलाप करने लगी । हाथके आघातसे हाथके कंकण तोडती मरोडती हुई दुःख पीडित तथा कर्तव्यरहित होकर शोक से उसने इस प्रकार विलाप किया ॥ १६२ - १६४ ॥ " हा नाथ, हा प्रिय, हा आधार, आप कौरववंशरूप आकाशमें सूर्य थे । आप सर्वदुःखोंको हरण करनेवाले और शुभकर्ता थे । हे नाथ, आप वीरोंके मुखको चन्द्रके समान आनंदित करनेवाले थे । सर्व श्रोताओंकी आपके विषय में शुभ भावना थी । हे प्रिय, आपके सुंदर कर्ण कुण्डलोंसे चमकते थे । और T आपकी देहकान्ति नये- तपाये हुए सोनेके समान थी । आपने अपने स्वरसे वीणाकी ध्वनिको तिरस्कृत किया था। मेघकी ध्वनिको आपने धारण किया था अर्थात् आपकी ध्वनि वीणानादसे भी सुंदर थी और मेघध्वनि के समान गंभीर थी । हा शंखतुल्य कंठ, आपने अपने सुन्दर कण्ठसे कोकिलाओंको भी उत्कंठित किया था । हे प्राणनाथ, आपने मदसे ऊंचे हुए दुर्वार वैरियोंके मस्तकको नीचा कर दिया था। आप मेरे उत्तम भूषण थे। जगत् जिसकी प्रशंसा कर रहा है ऐसी व्यापक कीर्तिको आपने अपने विशाल वक्षःस्थलपर धारण किया था । हे राजन्, दुःखी हुए मुझे छोड़कर आप कहां चले गये । आपके बिना मुझे उत्तम मान कौन देगा? आप नहीं होनेसे सर्वत्र शून्य यह महल नहीं शोभता है। आज मैं कर्तव्यमूढ हो गई हूं, आपके विना मैं गूढ दुखिनी हो गई हूं। आज मेरे मस्तक पर आदररहित होकर आकाश टूटकर पडा है । आज मेरे व्रणयुक्त अंगुठेपर किसीने खूब जानेवाला अग्नि गिरा दिया है। अमृतके समान प्रिय हे नाथ, आपके बिना मैं क्या करूं? मदनपीडित यह मेरा संपूर्ण देह जल रहा है । कहीं भी जानेपर मुझे बिलकुल चैन न पडेगी । पुरुषपुङ्गव, मेरे ऊपर आप प्रसन्न होकर मुझसे एकवार उत्तम भाषण बोलो। आपके बिना मुझे आहार में रुचिही नहीं है । उत्कृष्ट राज्य छोडकर आपने यह क्या कर डाला ! मुझपर आपका अत्यंत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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