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पाण्डवपुराणम् इदं दैवं बलं देव. वीक्षस्व क्षणसंकुलम् । प्रेक्षागृहं च वीक्षस्व ततः संप्रेक्ष्यमुद्ध्वजम् ॥१५२ विलोकयामराधीश नर्तकीनृत्यसंगताः । समासा भूषणाभासा देवीदेवाय सत्कुरु ॥१५३ देवत्वस्य फलं चैतत्संप्राप्तं हि त्वयाधुना । इति तद्वचसा सर्वमेतत्तूर्ण व्यधाद् बुधः ॥१५४ इति सातं भजन्मोगान्मेजेऽसौ सुरभूभवान् । भव्यो भक्तिं जिनेन्द्राणां तन्वानः सुखसंश्रितः ।। अथ मद्री धवस्नेहाद्विरक्ता भवभोगतः । भर्ना साकं सुसंन्यासे मतिं तेने सुमानसा ॥१५६ कुन्त्या सुतौ समासौ वेश्मभारं विशेषतः । संन्यासं कर्तुकामासौ वारितापि विनिर्गता ॥ गङ्गाक्टे स्थिति तेने संन्यस्याहारपानकम् । सा दृष्टिज्ञानचारित्रतपआराधनां व्यधात ॥१५८ तपःप्रभावतस्तस्याश्चक्षुषी लयमागते । भीते इव क्षुधादोषागीतानामीदृशी गतिः ॥१५९ अग मङ्गं गतं तस्याः स्तिमितेन्द्रियसंश्रयः । असवोऽपि गताः साधं धवेन धवलात्मना ॥१६० तत्रैव प्रथमे कल्पे सोदपादि शुभाश्रयात् । पुण्यं पचेलिमं चेद्धि का वार्ता नाकसंनिधेः ॥१६१ अथ कुन्ती शुचाक्रान्ता ज्ञात्वा मृत्यु महेशिनः । विलपल्लपना तत्र गत्वा सा विललाप च ॥
गृहभी देखिए । हे देवेश, नृत्य करनेवाली नर्तकियोंका विलोकन कर भूषणोंकी कान्तिसे चमकने वाली देवियोंका आज आप आदरसे स्वीकार कीजिए। आपने आज देवत्वका फल प्राप्त कर लिय है। इसप्रकारके उनके भाषण सुनकर उस देवने ये सर्व कार्य शीघ्र किये ॥१५०-१५४ ॥ इसप्रकार सुख भोगनेवाला वह देव स्वर्गभूमिके भोग भोगने लगा और जिनेन्द्रकी भक्ति करनेवाला वह भव्य वहां सुखसे रहने लगा ॥१५५॥
[ मद्रीकाभी स्वर्गवास ]. पतिके स्नेहसे मद्रीभी संसारभोगसे विरक्त हुई। शुद्ध मनवाली उसने अपने पति के साथ संन्यासमें अपनी बुद्धिको लगाया । मद्रीने अपने पुत्र (नकुल और सहदेव) कुन्तीको सम्हालनेके लिये समर्पण किये और विशेषतः गृहभार भी । निवारण करनेपर भी संन्यास धारण करनेकी इच्छासे वह घर छोडकर निकली। आहार पानीका त्याग कर गंगाके तटपर रहने लगी और सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप इन चार आराधनाओंकी आराधना करने लगी । तपके प्रभावसे उसके दोनों नेत्र भीतर घुस गये। मानो क्षुधाके दोषसे वे भयभीत हुए हैं। योग्यही है कि भययुक्त व्यक्तियोंकी परिस्थिति ऐसीही होती है । इंद्रियोंका आधारभूत उसका शरीर नष्ट हो गया और निर्मल स्वभाववाले अपने पतिके साथ उसके प्राण भी चले गये । पुण्यके आश्रयसे वह मद्रीभी पहिले स्वर्गमें उत्पन्न हुई । यदि पुण्य पक जाता है अर्थात्- उदित होकर फल देने लगता है तब स्वर्ग समीप आनेकी वार्ता आश्चर्यकी नहीं है। अर्थात् पुण्योदयसे स्वर्गप्राप्ति होना कोई बड़ी बात नहीं है। पुण्यसे सब कुछ मिल जाता है ।। १५६-१६१ ॥
[कुन्तीका शोक ] महाराजा पाण्डुकी मृत्यु जानकर शोकाकुल कुन्ती मुखसे विलाप करती हुई गंगाके तटपर जहां पाण्डुराजाकी मृत्यु हो गई, वहां गई और अपने मस्तकके केश
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