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________________ १७० पाण्डवपुराणम् लतामण्डपमासाद्य क्वचिन्मधुकरस्वरैः। वृतं वर्तुलसंकाशं तस्थौ स्थिरमनाः स्थिरः॥२४ स तत्र मण्डपे वल्ल्याः पुष्पशय्यामकारयत्। तत्र मद्या समं श्रीमांस्तस्यौ भोगार्थलालसः॥ .रममाणः खिया सक्तः समासक्तमुखाम्बुजः । धनपीनस्तनाभोगां स भोगी बुभुजे च ताम्॥ स भोगभरनिर्मिनः संभिन्नमदनज्वरः । तावता मृगमैक्षिष्ट क्रीडन्तमुपमण्डपम् ॥२७ हरिणीभोगसंलुब्धं कुरङ्गं वीक्ष्य तत्क्षणात् । स च कोदण्डसंधानं शरेण समकल्पयत् ॥२८ जघान शरघातेन चापमुक्तेन भूमिपः । कुरङ्ग मारसंसक्तं कुरङ्गीलुब्धमानसम् ॥२९ पपात पृथिवीपीठे रटन्संकटसंगतः । ममार स च धिग्भोगान्लुब्धस्य गतिरीदृशी ॥३० ततो नभोगणावो जजम्भे ध्वनिरित्यरम् । भूपाल तव नो युक्तमीदृशं कर्म दुःखदम ।। निरपराधिनो भूपा मृगान्धन्ति वनस्थितान् । यदि रक्षा करिष्यन्ति तदान्ये केत्र भूतले॥ सापराधा अपि प्राज्ञैर्न हन्तव्या मृगादयः। जेनीयन्ते स्म दैवेन यतो निरपराधिनः॥३३ सतां प्रपालका भूपा असतां च निवारकाः । इत्युक्ति युक्तितस्तूर्ण विफलां कुरुषे कथम्॥३४ मृगोऽयं न परान्हन्ति न स्वं चोरयति स्वयम् । परकीयं न चात्येव सस्यं वा रक्षितं नृणाम् ।। राजाने क्रीडा की, तोभी क्रीडाकी इच्छा पूर्ण न हुई । अतः वह पुनः विहार करनेके लिये उद्युक्त हुआ। उद्यानके प्रदेश देखनेमें उद्यत हुए पाण्डुराजाने वल्लियोंसे घिरे हुए अनेक स्थान देखे। किसी प्रदेशमें भौंरोंके मधुरस्वरोंसे घिरे हुए वर्तुलाकार लतामण्डपमें जाकर स्थिरचित्त होकर राजा स्थिर बैठा। उस लतामण्डपमें उसने पुष्पोंकी शय्या बनवाई । भोगपदार्थोंका अभिलाषी वह श्रीमान् राजा मद्रीरानीके साथ उसपर बैठ गया। मद्रीके मुखकमलमें आसक्त वह स्त्रीलंपट भोगी राजा कठिन और पुष्ट-स्तनवाली मद्रीके साथ खूब भोग भोगने लगा । इसप्रकार क्रीडा करनेसे उसकी भोगेच्छा मन्द हो गई और मदनज्वर नष्ट हुआ। इतनेमें मण्डपके समीप क्रीडा करनेवाले एक हरिणको उसने देखा। वह हरिणीके भोगमें लुब्ध हुआ था। उसको देखकर तत्काल उसने बाणसे धनुष्यका संधान कर दिया ॥ २१-२८॥ हरिणीके ऊपर लुब्धचित्त कामपीडित हरिणको राजाने धनुष्यसे छोडे हुए बाणके आघातसे मार डाला । बाणके लगनेसे आर्त चिल्लाता हुआ वह हरिण जमीनपर गिर पडा और मर गया। जो भोगलुब्ध होता है उसकी ऐसी गति होती है अतः ऐसे भोगोंको धिक्कार हो। ॥२९-३०॥ इसके अनंतर आकाशमेंसे देवकी वाणी इस प्रकारसे प्रगट हुई । “हे राजन् , तेरा इस प्रकारका दुःखदायक कर्म योग्य नहीं है। हे राजन् , यदि वनमें निरपराधी प्राणियोंको राजा मारेंगे तो इस भूतलमें कौन उनका रक्षण करेंगे? हे राजन् , अपराधयुक्त प्राणीको भी मारना विद्वान् लोगोंको योग्य नहीं है। परंतु दुर्दैवसे निरपराधी प्राणी हमेशा मारे जाते हैं। राजा सजनोंके रक्षक और दुष्टोंके निवारण करनेवाले होते हैं यह जो उक्ति-वचन प्रसिद्ध है उसे क्यों विफल कर रहा है। ॥३१-३४॥ यह मृगप्राणी दूसरोंको न मारता है और न किसीके धन को लुटता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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