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नवमं पर्व
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अशोकाः शोकसंतप्ता भामिनीपादताडिताः । बकुलाः सफला योषामधुगण्डूषसिञ्चिताः ।। १२ आलिङ्गिताः कुरबका भीरुभिर्विकसन्ति च । भ्रमरा भ्रमरीवृन्दैर्गायन्ति मदनेशितुः ।। १३ यशो जगज्जयेनैव संभवं सुमहीपतेः । सुरासुरासुरीनारीसुरीसंघस्य पालिनः ॥१४ कोकिलाः कलनिःखाना अनुकुर्वन्ति गर्विताः । कामिनीनां स्वरांस्तन्त्रीयन्त्रितान्काम मन्त्रिणः।। कामिनी कलगीतानि श्रूयन्ते च पदे पदे । किंनरीनादजेतृणि सरसानि रसोत्करैः ॥ १६ रंरम्यते स्म भूपालो वने तत्र प्रियासखः । नृत्यानि पक्ष्मलाक्षीणां प्रेक्षमाणः पदे पदे ॥ १७ स तां च रमयामास रम्यैर्भोगै रतोद्भवैः । हासै रसैर्विलासैश्च क्रीडयालिङ्गनादिभिः ॥ १८ क्वचिच्चन्दननिर्यासैरगुरुद्रवमर्दनैः । सुगन्धिचूर्णनिक्षेपैः क्वचित्कान्तानिरीक्षणैः ।। १९ स सुखं सुभगालापैः कलापैः स्त्रीजनस्य च । रममाणस्तदा लेभे न तृप्तिं तृष्णयान्वितः || २०१ जलक्रीडारतः क्वापि वापिकायां स्त्रिया समम् । स चन्दनजलोद्भच्छत्पृषद्भिः कुसुमैरिव ॥ २१ आकण्ठं च जले मग्नो नृप उद्भासिसन्मुखः । स्वर्भानुरिव स्त्रीवस्त्रचन्द्रं गिलितुमागमत् ।। २२ भूपः संक्रीड्य क्रीडार्तो विहर्तुं पुनरुद्ययौ । प्रतानिनीपरान्देशान्लुलोके लोकनोद्यतः ॥ २३
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स्त्रियोंके चरणसे ताडित होकर विकसित हुए । स्त्रियोंके मद्यकी कुल्लोंसे सिश्चित बकुल वृक्ष फलसहित हुए । भीरु स्त्रियों केद्वारा आलिङ्गित कुरबक नामक वृक्ष उस वनमें विकसित हुए | और भ्रमर भ्रमरियोंके साथ गुंजारव कर रहे थे; मानो पृथ्वीके पति मदनका जगत्को जीतने से प्राप्त
यश गा रहे थे । अर्थात् सुर, असुर, असुरी नारी - अर्थात् असुरोंकी देवांगना, और सुरीदेवोंकी स्त्रियां इन सबके पालक मदनका यश भौरे और भ्रमरी गाने लगे ॥ १२-१४ ॥ उस वनमें गर्वयुक्त, मधुर शब्द करनेवाली कामरूपी राजाकी मंत्री कोकिलायें वीणाके ध्वनिका अनुसरण करनेवाले कामिनियोंके स्वरोंका अनुकरण करती थीं। उस बनमें किन्नरीके ध्वनिका पराजय करनेवाले और अनेक रसोंसे भरे हुए स्त्रियोंके मधुर गान पदपदपर सुने जाते थे ।। १५-१६॥ वनमें सुंदर स्त्रियोंके नृत्य पदपदपर देखता हुआ राजा पाण्डु अपनी पत्नी मद्रीके साथ विहार करने लगा । नानाविध रम्य भोगोंसे, और संभोगसे उत्पन्न हुए हास्य, रस और विलासोंसे, तथा क्रीडासे, और आलिङ्गनादिकोंसे राजाने मद्रीको खूब रमाया ॥ १७-१८ ।। उस वनमें कचित् चन्दनरससे, क्वचित् अगुरुरसको अंगमें चर्चित करनेसे, क्वचित् सुगंधिचूर्ण अन्योन्यपर फेंकनेसे और क्वाचत् अपनी प्रिय पत्नी के मधुर कटाक्षविलोकनोंसे और कचित् स्थानमें स्त्रियोंके कर्णमधुर व मनोज्ञ ध्वनियोंके कारण सुखसे. रममाण होनेवाला पाण्डुराजा उत्तरोत्तर भोगोंकी चाह बढने से तृप्त नहीं हुआ । १९-२० ॥ किसी वापिकामें जलक्रीडामें तत्पर होकर चन्दनजलके ऊपर उडनेवाले शुभ्र पुष्पके समान बिन्दुओं से क्रीडा करने लगा । वापिकामें कण्ठतक पानीमें डूबे हुए राजाका शोभनेवाला उत्तम मुख मानो स्त्रीके मुखचन्द्रको निगलनेके लिये आये हुए राहूके समान दिखता था ।
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