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नवमं पर्व
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ये नृपाः कृपयोन्मुक्तास्तूंहन्ति बृहतः पशून् । निरपराधिनो नूनं तेऽद्य यास्यन्ति कां गतिम् ॥ पिपीलिकास्तनौ लग्नास्तन्व्योऽपि यदि दुःखदाः । जानद्भिरिति बाणेन कथं जेघ्नीयते मृगः ॥ मृगयामृगघातेन मृग्यं पापं हि केवलम् । अतो हिंसा न कर्तव्या हिंसा सर्वत्र दुःखदा || ३८ ये हिंसातः समिच्छन्ति वृषं वृषविवर्जिताः । ते गोश्रृंगात्पयः पूर्णमग्नितः कमलोद्गमम् ||३९ विषाच्च जीवितं जीव्यमहिवक्त्रात्परां सुधाम् । अस्तं प्राप्ताद्रवेर्घत्रं शिलातः सस्यसंभवम् ॥ इत्थं विज्ञाय भूपेन दया कार्या सुखावहा । कृपया प्राप्यते पारः संसारजलधेर्यतः ॥४१ इत्युक्तियुक्तिसंपत्तिं समाकर्ण्य कृपापरः । विरराम भवाद्भोगाद्देहतो भङ्गुरान्नृपः ॥४२ सुधा बुधा न कुर्वन्ति किल्बिषं कामवाञ्छया । ततः केवलकालुष्यादाप्नुवन्ति च दुर्गतिम् ॥ सुधा प्राणिवधेनाहो किं साध्यं मे सुखार्थिनः । किं राज्येन च सज्जन्तुघातोत्थकिल्बिषात्मना ॥ त्वयैव विषयार्थं हि प्राप्तं दुःखमनेकशः । विषयामिषदोषोऽयं प्रत्यक्षं किं न चेक्ष्यते ॥४५
परकीय तृण अथवा मनुष्यरक्षित तृणको वह स्पर्श नहीं करता है । जो निर्दय राजा निरपराध बड़े पशुओं को मारते हैं अरेरे, न जाने वे कौनसी गतिको जायेंगे ! छोटी छोटी चींटियाभी शरीरपर दंश करने से दुःख होने लगता है यह जाननेवालेका बाणकेद्वारा हरिणको मारना कैसे न्यायसंगत हो सकता है ? शिकारमें हरिणके मारनेसे क्या प्राप्त होता है इसका अन्वेषण करनेसे सिर्फ पापही लगता है यह दीख पडेगा । इस लिये हिंसा नहीं करना चाहिये । क्यों कि हिंसा सर्वत्र दुःख देनेवाली होती है ।। ३५-३८ ॥ जो अधार्मिक लोग हिंसासे पुण्य या धर्म होता मानते हैं, समझना चाहिये कि वे गायके सींगसे दूध, अग्निसे कमलकी उत्पत्ति, विषसे जीवनप्राप्ति, सर्पके मुखसे उत्तम सुधा, अस्तको प्राप्त हुए सूर्यसे दिन और शिलासे धान्यांकुरका संभव समझ लेते हैं । इसलिये राजाको सुखदायक दयाका अंगीकार करना चाहिये । क्योंकि, दयासे संसारसमुद्रका दूसरा किनारा प्राप्त किया जा सकता है" ॥ ३९-४१ ॥ इस प्रकार आकाशकी युक्तियुक्त देववाणी सुनकर दयालु पाण्डुराजाका मन नश्वर संसार, देह और भोगसे विरक्त हुआ ॥ ४२ ॥ [ पाण्डुराजाका वैराग्यचिन्तन ] विद्वान् लोक कामवासनाके वशीभूत होकर व्यर्थ पाप नहीं करते हैं । कामवासना से केवल कालुष्य भावही उत्पन्न होता है । जिससे दुर्गतिकी प्राप्ति होती है । मैं सुखकी इच्छा करता हूं। मुझे व्यर्थ प्राणिवध करनेसे वह कैसा प्राप्त हो सकेगा ? और प्राणियोंका घात करनेसे उत्पन्न हुआ जो पातक तत्स्वरूप राज्य है । अर्थात् राज्य प्राणियों के घातकेविना प्राप्त नहीं होता है । अत एव वह प्राणिघातरूप होनेसे पापरूप है ॥ ४३ ॥ हे आत्मन्, तूनेही विषयोंके लिये अनेकवार दुःख प्राप्त किये हैं । जीवोंको जो दुःख प्राप्त होते हैं उनका उपादान कारण विषय हैं । हे आत्मन् यह बात प्रत्यक्ष होने परभी तुझे नहीं दीखती है, है जीव, ये सब राज्यादिक पदार्थ तुझसे पहले अनेकवार भोगे गये हैं । वही उच्छिष्टराज्यादिक
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