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________________ अष्टम पर्व युद्धे यो जितवान् रिपूञ्जनमनोहादी जनालङ्कृतो दुर्वारारिविघातनैकसुकृतिः श्रीधर्मराजात्मजः । भीमो भीतिहरो विपक्षतिमिरश्रीमानुमान्माखरः पार्थः स्वार्थकरः समर्थमहितो भानुप्रभाभासुरः ॥ २१९ अतुलविपुललीलालक्षिता लक्षणाङ्गाः सकलबलविलासालङ्कृता निर्मलास्ते । चटुलकमलताराहारिहारावतंसा जिनवरपदलीनाः कौरवा वै जयन्तु ॥ २२० इति श्रीपाण्डवपुराणे महाभारतनाम्नि भट्टारकश्रीशुभचन्द्रप्रणीते ब्रह्मश्रीपालसाहाय्यसापेक्षे पाण्डवकौरवोत्पत्तिवर्णनं नामाष्टमं पर्व ॥८॥ mmmomm । नवमं पर्व । अभिनन्दनमानन्ददायकं दरदारकम् । विशदप्रमदोदारं दधामि हृदये जिनम् ॥१ विद्वान् पाण्डु प्रगट संकटकी भीति दूर करनेवाले उत्कृष्ट हाथियोंकी पंक्तियोंको शिक्षण देता था ॥२१८॥ युद्ध में शत्रुको जीतकर जिसने जनमनको आह्लादित किया था, दुर्वार शत्रुओंका नाश करनाही जिसका मुख्य कर्तव्य था ऐसा धर्मराज अर्थात् युधिष्ठिर सज्जनोसे शोभता था। विपक्ष- शत्रुरूपी अंधकारको नष्ट करनेके लिये भीम शोभायुक्त-किरणवाले सूर्यके समान था। और अर्जुन स्वार्थकरअपने अर्थको करनेवाला था अर्थात् वह अर्जुन- निष्कपटी था। अथवा अर्जुन धनंजय नामसेभी प्रसिद्ध था इसलिये स्वार्थकर-धन और जयको प्राप्त करनेवाला था। समर्थ लोगोंकेद्वारा आदरणीय था और भानुप्रभा- सूर्यकान्तिके सदृश तेजस्वी था ॥ २१९ ॥ धृतराष्ट्रके सौ पुत्र और पाण्डुराजाकें पांच पुत्र कुरुवंशमें उत्पन्न होनेसे कौरव कहे जाते हैं। वे सब कौरव हमेशा अनुपम और अनेक प्रकारकी क्रीडायें करते थे। शंख, चक्र, मत्स्यादि शुभ-लक्षणोंसे उनके देह शोभते थे । अन्तःकरणसे निर्मल-निष्कपटी थे। उनके गलोंमें चंचल कमलोंकी शोभा हरण करनेवाले हार थे और कानोंमें नक्षत्रोंकी कान्तिको हरण करनेवाले कुण्डल थे। ऐसे वे जिनेश्वरके पदमें भक्ति करनेवाले कौरव हमेशा जयवंत रहें ॥ २२० ॥ ___ श्रीब्रह्मचारी श्रीपालजीने जिसमें साहाय्य किया है ऐसे श्रीशुभचन्द्र विरचित महाभारत नामक पाण्डवपुराणमें पाण्डव-कौरवोंकी उत्पत्तिका वर्णन करनेवाला आठवा सर्ग समाप्त हुआ॥८॥ [पर्व नववा ] संसारभय निवारक, निर्मल आनंद अर्थत् अनन्त सुख प्राप्त होनेसे जो अत्यंत महान् हुए हैं, जो भव्योंको आनन्द देते हैं ऐसे अभिनन्दन जिनको मैं हृदयमें धारण करता हूं ॥१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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