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________________ १६६ पाण्डवपुराणम् गाङ्गेयेन सुगाङ्गेयतेजसामलचक्षुषा । पितामहेन तेषां हि शीललीलाविलासिना ॥२०८ रक्षिताः शिक्षिताः सर्वे परां वृद्धिमवापतुः। वृद्धेन पालिताः के हि न यान्ति परमोदयम् ॥ द्रोणाख्येन द्विजेशेन पालिताः परमोदयाः। भेजुर्वृद्धिं शुभाकाराः पाण्डवाः कौरवाः पुनः॥ द्रोणायितं च द्रोणेन धनुर्वेदसरित्पतेः। तरणे च शरण्येन कारुण्यपण्यवाहिना ॥२११ द्रोणस्तु सर्वपुत्राणां चापविद्यामशिक्षयत् । ते तस्य विनयं चक्रुर्विद्या विनयतो यतः॥२१२ सार्जवायार्जुनायासौ व्यपेताय विकर्मतः। कार्मुकी कार्मुकी विद्यां पितृव्यः समुपादिशत् ॥ शब्दवेधिमहाविद्यां द्रोणात्पार्थः समासदत् । गुरोविनीतेः किं न स्याद्विनयो हि सुकाममः। प्रचण्डाखण्डकोदण्डलक्षणं लक्ष्यलक्षणम् । वेध्यवेधकभावेनाशिक्षयद्गुरुतः स च ॥२१५ पार्थो व्यर्थीकृताशेषचापविद्याविशारदः। रराज राज्यरङ्गेऽस्मिन्नभसीव निशापतिः ॥२१६ एवं तेषां महान्कालो लिप्सूनां सातमुल्वणम् । अटितः सुसुखानां हि वत्सरोऽपि क्षणायते ॥ इति सुपाण्डुरखण्डसुपण्डितः सुघटघोटकटङ्कितसद्भटः। घटयति स्म घटां वरदन्तिनां प्रकटसङ्कटसाध्वसहारिणीम् ।।२१८ नेत्रके धारक, शीललीलासे शोभनेवाले पितामह भीष्माचार्यने इन सब पुत्रोंका रक्षण किया। उनको शिक्षण दिया, और उनको वृद्धिंगत किया । योग्यही है कि वृद्धज्ञानी पुरुषसे पालन किये जानेपर किनका अभ्युदय नहीं होता ? अर्थात् सर्व जनोंका अभ्युदय होगा ही ॥ २०८-२०९॥ द्रोण नामक किसी द्विजश्रेष्ठने उनका पालन किया। वे परम वैभवको प्राप्त हुए। इसप्रकार शुभरूप धारण करनेवाले पोण्डव और कौरव बढ़ने लगे। धनुर्वेदरूपी समुद्रमें द्रोणाचार्य नौकाके समान थे । वह आचार्यनौका धनुर्वेदरूपी समुद्रमें तैरनेके लिये परम सहायक थी और दयारूपी विक्रय वस्तुओंको धारण करती थी। द्रोणाचार्यने सम्पूर्ण पुत्रोंको चापविद्याका शिक्षण दिया । वे सब पुत्र उनका विनय करते थे, क्यों कि विद्या विनयसे प्राप्त होती है ॥ २१०-२१२ ॥ ऋजुभाव- निष्कपटपनेको धारण करनेवाले, अशुभ-पापकर्मरहित अर्जुनको धनुर्वेदी द्रोणाचार्यने धनुर्विद्याका दान दिया। शब्दवेधि महाविद्या अर्जुनने द्रोणाचार्य-गुरुका विनयकर प्राप्त की थी। क्यों कि विनय इच्छित पदार्थको देता है ॥ २१३-२१४ ॥ अर्जुनने गुरुसे प्रचंड और अखंड धनुर्विद्याका स्वरूप जान लिया । तथा वेध्य और वेधकभावसे लक्ष्यका स्वरूप जान लिया ॥२१५॥ चापविद्यामें जो जो प्रवीण पुरुष थे उन सबको अर्जुनने अपने धनुर्विद्याके कौशल्यसे नीचे कर दिया। आकाशमें जैसा चंद्र शोभता है वैसा वह राज्यरंगमें शोभने लगा ॥ २१६ ॥ इसप्रकार उत्तम सुखकी इच्छा करनेवाले उन सुखी पाण्डव और कौरवोंका महान् काल व्यतीत हुआ। योग्यही है कि सुखी लोगोंका वर्षकालभी क्षणके समान व्यतीत हो जाता है ।। २१७ ॥ उत्तम शिक्षण जिनको मिला है ऐसे घोडोंपर जिसके योद्धालोगोंने आरोहणं किया है ऐसा अखंड Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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