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अष्टमं पर्व संपूर्णदोहदाप्येवं पूर्ण मासि सुतोत्तमम् । सुषुवे सा समीचीनं यथा च सुमनोरथम् ॥१३० विस्तीर्णनयनाब्जोऽसौ वक्त्रचन्द्रसमप्रभः। सनयस्तनयस्तस्या राजराजकुलोद्गमः॥१३१ उत्पत्तिसमये तस्य निशान्तस्थं सुतामसम् । विलयं कापि संयातं यथा सूर्योद्गमे मुवि ॥१३२ सा शर्वरीव सौम्येन सुतसोमेन व्यद्युतत् । दीप्तिता दिवसस्येवासीपितुर्बालभानुना ॥१३३ तदानन्दमहाभेर्यो दध्वनुः कोणकोटिभिः। प्रहता ध्वनदम्भोधिगम्भीरं नृपसबनि ॥ १३४ पटत्पटहझल्लयः पणवाः शंखकाहलाः। ताला वीणा मृदंगाश्च प्रमोदादिव दध्वनुः॥ १३५ नृत्यं जिताप्सरोनाव्यमारभ्यत महालयः। यकाभिः सुरनर्तक्यो हेलया निर्जिता द्रुतम् ॥ तदा रेजुः पुरे वीथ्यश्चन्दनाम्भश्छटाश्रिताः। कृताभिर्वरशोभाभिर्हसन्त्यो वा दिवा श्रियम् ।। गृहे गृहे पुरे रेजू रत्नतोरणमण्डपाः। रत्नचूर्णैर्बभुर्भूमौ रत्नावल्यः सुरङ्गिताः ॥ १३८ । महोदरा महाकुम्भाः स्वार्णा रेजुर्गृहे गृहे। उत्तम्भिता नभोभागे भानवो वा समागताः॥ श्रुत्वा पुत्रप्रसूति स नृपमेघो ववर्ष च। दानधारां सुलोकानां यथेष्टमिष्टवृष्टिवत् ॥ १४०
मनोरथके समान अनेक पुत्रोंमें श्रेष्ठ सुपुत्रको जन्म दिया। पुत्रके नेत्रकमल विस्तीर्ण थे। मुख चंद्रके समान आह्लादक कान्तिसे परिपूर्ण था। वह नीतियुक्त और महानृपति-पाण्डुराजाके कुलकी उन्नति करनेवाला था। उसकी उत्पत्तिके समय सूर्योदयके समान भूतलमें सर्व अंधकार नष्ट होकर कहीं चला गया। रात्री जैसे चन्द्रसे शोभती है, वैसे वह कुन्ती पुत्ररूपचन्द्रसे शोभने लगी। जैसे बालसूर्यसे दिवस प्रकाशसे उद्दीप्त होता है वैसे उसके पिता पाण्डुराज बालकरूप सूर्यसे उद्दीप्त हो गये ॥१३०-१३३॥ उस समय राजाके घरमें डंडोंके अग्रभागसे ताडित बड़े आनंदनगारे गर्जना करनेवाले समुद्र के समान शब्द करने लगे। पटह [पडघम ] झल्लरी [ झांज ] पणव, शंख, काहल ताल, वीणा और मृदंग आदि वाद्यसमूह मानो आनन्दसे राजाके घरमें शब्द करने लगे ॥१३४१३५॥ जिन्होंने देवनर्तकियोंको पराजित किया है, ऐसी नटियोंने महा लयके साथ अर्थात साम्यके साथ नृत्य करना प्रारंभ किया, जो देवाङ्गनाओं के नृत्यको तिरस्कृत करता था ॥१३६॥ पुत्रजन्मो सबके समय नगरकी प्रत्येक गलीमें चंदनजलकी छटाओंसे मार्गका सिंचन किया गया। तथा तोरणादिकोंसे सुशोभित की गई वे गलियां मानो स्वर्गकी शोभाको हंस रही थीं। नगरमें प्रत्येक घरमें रत्नतोरणोंसे मंडप सुंदर दीखते थे, और जमीनपर रत्नचूर्णोसे रंगित रत्नावलीकी खूब शोभा दौखती थी ॥१३७-१३८॥ प्रत्येक धनिकके गृहद्वारपर विशाल उदरवाले, सुवर्णकुंभ सौंदर्य बढा रहे थे, आकाश मार्गमें जिनकी गति स्थगित हुई है ऐसे सूर्यही मानो यहां आये हुए हैं ॥१३९॥ पुत्रजन्मकी वार्ता सुनकर वर्षाकालको प्रियजलवृष्टिक समान राजारूपी मेघन लोगोंकी इच्छानुसार धनदानधाराकी खूब वर्षा की। अंत:पुरसहित समस्त नगरमें आनंद उत्पन्न कर यह.महा उदारचिच बालक कौरक्वंशरूपी समुद्र को वृद्धिंगत करनेके लिये शीतकान्ति धारण करनेवाले चन्द्र
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