________________
१५८
पाण्डवपुराणम् अच्युताद्विच्युतं देवं सा दधे गर्भपङ्कजे । पुण्यतः किं दुरापं सात्सुतोत्पत्त्यादिकं सदा ॥ ववृधेय क्रमागर्भस्तस्या हर्षकरो नृणाम् । विपक्षपक्षक्षेपिष्ठः स्वजनानन्ददायकः॥ १२१ वीक्ष्याथ पाण्डुरां पाण्डुः सभ्रूणां भ्रूभमावहाम् । मुमुदे तां यथा खानि रत्नरञ्जितभूमिकाम्।। त्रिवलोभनमावेन या वक्तीव सुगर्भतः। अरीणां भङ्ग एवान भविता नान्यथा गतिः॥१२३ मृत्सादनसमीहातस्तस्या गर्ने स्थितः पुमान् । भूमि भोक्ष्यति सर्वां च साधयित्वाखिलान्नृपान्।। उन्नतौ तत्कुचौ नूनं कृष्णचूचुकसंयुतौ । वदतः स्वजनौनत्यं कृष्णतां परपक्षके ॥ १२५ निष्ठीवनं मुखे तस्या वक्तीवेति जनान्प्रति। निष्ठां न यास्यति क्वापि वैरिवर्गः सुगर्भतः॥ एवं सुगर्भचिह्नालङ्कृतेः शयनासने । भोजने भूषणे वाण्यां तस्याः प्रीतिर्नचाभवत् ॥१२७ जिनार्चनविधौ तस्या धर्मे धर्मफलेऽपि च । प्रीतिःहदभावेन संपनीपद्यते स्म वै ॥ १२८ जिनार्चनं विधत्ते सा सव्रता व्रतिवत्सला। युधि स्थितान्महाशत्रून् हन्मीति च सदोहदा॥
[धर्म, भीम तथा अर्जुनका जन्म ]- अच्युतस्वर्गसे च्युत हुए देवको कुन्तीने अपने गर्भकमलमें धारण किया। पुण्यके प्रभावसे कौनसी वस्तु दुर्लभ है ? सभी वस्तु पुण्यसे सुलभ होती है। पुत्रोत्पत्ति, धनलाभ, शत्रुके ऊपर विजय प्राप्त करना इत्यादि सब जीवको पुण्योदयसे प्राप्त होते हैं। इसके अनंतर शत्रुपक्षका नाश करनेवाला, स्वजनोंको आनंददायक, प्रजाको हर्षित करनेवाला कुन्तीका गर्भ क्रमसे वृद्धिंगत होने लगा ॥१२०-१२१॥ भ्रूविलास को धारण करनेवाली, गर्भवती, शुभ्रशरीरवाली कुन्तीको रत्नोंसे भूमिको प्रकाशित करनेवाली रत्नखानी के समान देखकर पाण्डुराजा आनंदित हुआ ॥१२२॥ पुण्यवान् गर्भसे, त्रिवली का भंग हुआ। इस जगतमें शत्रुओंका भंग होगाही, इसे रोकनेका दुसरा उपाय नहीं है ऐसा ही मानो त्रिवलीके भंगसे रानी कुन्ती कहती थी। कुन्तीको उत्तम मृत्तिकाभक्षणकी इच्छा हुई थी। इससे उसके गर्भमें रहा हुआ पुत्र संपूर्ण राजाओंको जीतकर संपूर्ण भूमिको भोगनेवाला होगा। काले अग्रको धारण करनेवाले उसके दो पुष्ट स्तन मानो स्वजनोंकी उन्नति और शत्रुपक्ष का मुख काला होगा ऐसाही कह रहे थे। कुन्ती के मुखमें थूक बहुत आती थी मानो वह लोगोंको कहती थी कि इस गर्भके प्रभावसे वैरिवर्ग की कहीं भी स्थिरता अब नहीं रहेगी। इस प्रकारके गर्भचिह्नों से उसका देह अलंकृत होनेसे उसे भोजनमें, अलंकारोंमें, भाषणोंमें किसी भी प्रीति नहीं रही। परंतु जिनपूजाविधिौ, धर्ममें, धर्मके फलोंमें, इच्छा होनेसे प्रीति उत्पन्न होती थी। व्रत धारण करनेवाली वह कुन्ती बतिलोगोंमें वात्सल्यप्रेम धारण करती थी। तथा युद्ध में खडे हुए शत्रुओंको मैं मारूंगी ऐसा दोहद वह धारण करती थी ॥१२३-१२९॥ जिसके संपूर्ण दोहद पूर्ण हुए हैं ऐसी कुन्तीने नवमास पूर्ण होनेपर उत्तम
सपब धर्माभिलाषं धत्ते सा।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org